Aniruddh Singh
7 Nov 2025
Aniruddh Singh
7 Nov 2025
नई दिल्ली। भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने पर विचार कर रही है। फिलहाल यह सीमा 20% तक सीमित है, जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों में यह 74% तक की अनुमति है। इस सीमा को बढ़ाने का उद्देश्य इन बैंकों को मज़बूत बनाना, पूंजी जुटाने की सामर्थ्य बढ़ाने और उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना है। हालांकि, सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उसकी हिस्सेदारी 51% से कम नहीं होगी, ताकि इन बैंकों का सार्वजनिक स्वरूप बरकरार रहे और निर्णय लेने की शक्ति सरकार के हाथ में बनी रहे इसके लिए सरकार के पास अधिसंख्य हिस्सेदारी जरूरी है । इस कदम पर विचार इसलिए किया जा रहा है क्योंकि पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने अपनी स्थिति को मजबूती से सुधारा है।
पहले जहां इन बैंकों का गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) अनुपात काफी ऊंचा था, वहीं मार्च 2021 में 9.11% से घटकर मार्च 2025 तक यह केवल 2.58% रह गया है। इसी अवधि में इन बैंकों का शुद्ध लाभ 1.04 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 1.78 लाख करोड़ रुपए हो गया है और डिविडेंड का भुगतान भी 20,964 करोड़ रुपए से बढ़कर 34,990 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। यह आंकड़े बताते हैं कि पीएसबी अब सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ रहे, बल्कि विकास और विस्तार की ओर अग्रसर हैं। वित्तीय सेवाओं के सचिव एम. नगराजू ने पिछले दिनों कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अब सिर्फ स्थिरता पर नहीं टिके हैं, बल्कि उन्हें विकास, नवाचार और नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ना होगा। भारत के विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को हासिल करने में इन बैंकों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
इसके लिए जरूरी है कि वे न केवल अपने संचालन और प्रबंधन को मजबूत बनाएं, बल्कि पारंपरिक और उभरते हुए दोनों ही उद्योगों में क्षेत्रीय चैम्पियन बनकर उभरें। फिलहाल विदेशी निवेश पर दोहरी पाबंदी है-एक तो हिस्सेदारी की सीमा 20% है और दूसरी मतदान अधिकारों की अधिकतम सीमा 10% है। सरकार इस ढांचे को लचीला बनाने के विकल्प तलाश रही है, ताकि पूंजी का प्रवाह बढ़ सके और फिर भी बैंकों के सार्वजनिक स्वरूप पर कोई असर न पड़े। इसमें गोल्डन शेयर मैकेनिज़्म जैसी व्यवस्था पर भी विचार हो रहा है, जिसके तहत भले ही हिस्सेदारी कम हो जाए, लेकिन नियंत्रण सरकार के पास ही रहता है।
इस कदम का एक और अहम कारण है भारत की तेज़ आर्थिक वृद्धि की संभावनाएं और अधोसंरचना में बड़े पैमाने पर निवेश। आज सबसे बड़ी चुनौती पूंजी की कमी है। यदि भारत को दुनिया के शीर्ष बैंकों की कतार में खड़ा होना है, तो बैंकों की बैलेंस शीट भी उतनी ही मज़बूत होनी चाहिए। विदेशी निवेश को अनुमति देने से पूंजी जुटाना आसान होगा और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता बढ़ेगी। देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) में इस समय विदेशी निवेश लगभग 10% है। अगर इस सीमा को और बढ़ाया जाता है तो न केवल विदेशी पूंजी का प्रवाह बढ़ेगा, बल्कि तकनीकी और प्रबंधकीय सुधार भी आएंगे।
इसके साथ ही, भारत का बैंकिंग-से-जीडीपी अनुपात अभी भी अपेक्षाकृत कम है, जिससे यह संकेत मिलता है कि दीर्घकालिक क्रेडिट विस्तार के लिए काफी संभावनाएं मौजूद हैं। सरकार का यह प्रस्ताव सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने, उनकी वित्तीय क्षमता को मज़बूत करने और भारत की अर्थव्यवस्था को लंबी अवधि में नई दिशा देने की दिशा में एक बड़ा और साहसिक कदम हो सकता है। यदि उचित सुरक्षा उपाय और नियंत्रण तंत्र बनाए जाते हैं, तो यह बदलाव भारतीय बैंकिंग सेक्टर के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है।