Aniruddh Singh
21 Oct 2025
नई दिल्ली। चीन में कल से शुरू हो रहे एससीओ समिट के पहले भारत, चीन और रूस के बीच त्रिपक्षीय सहयोग पर फिर चर्चा शुरू हो गई है। कहा जा रहा है रूस, भारत और चीन (आरआईसी) को एक संयुक्त मोर्चा बना लेना चाहिए, तभी अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व को चुनौती दी जा सकती है। 1990 के दशक में रूसी नेता येवगेनी प्रिमाकोव ने सबसे पहले यह विचार रखा था कि दुनिया में अमेरिकी दबदबे को संतुलित करने के लिए तीन बड़ी और संसाधन सम्पन्न शक्तियों मॉस्को, नई दिल्ली और बीजिंग को एक साझा मोर्चा बना लेना चाहिए। यह सोच तब उपजी थी जब सोवियत संघ के पतन के साथ शीत युद्ध खत्म हो गया और दुनिया पर अमेरिकी दबदबा बढ़ गया।
आज, 2025 में भी, परिस्थितियां बहुत कुछ वैसी ही दिखाई दे रही हैं। एक ओर, रूस पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों और अलगाव का सामना कर रहा है, चीन अमेरिका से व्यापार और तकनीकी मोर्चे पर टकरा रहा है और भारत को भी वॉशिंगटन की नीतियां लगातार असहज कर रही हैं। ऐसे में रूस ने एक बार फिर तीनों देशों के इस संभावित गठबंधन को पुनर्जीवित करने की पहल की है, चीन ने मैत्री का हाथ बढ़ाया है और भारत इसे संभावना के रूप में देख रहा है। माना जा रहा है कि तीनों देशों का यह संभावित गठजोड़ राजनीतिक और आर्थिक रूप से अमेरिका से मुकाबला करने में सक्षम होगा।
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हालांकि, यह त्रिकोण जितना आकर्षक दिखता है, उतना ही जटिल भी है। सबसे बड़ी बाधा भारत और चीन के बीच लंबे समय से चला आ रहा सीमा विवाद हैं। सन 1962 के युद्ध ने दोनों देशों के बीच अविश्वास की गहरी दीवार पैदा कर दी थी। इसके बाद 2020 में गलवान घाटी की झड़प ने रिश्तों को और भी बिगाड़ दिया है। हाल के महीनों में दोनों देशों के बीच भले ही कुछ समझौते हुए हों और तनाव थोड़ा घटा हो, लेकिन नई दिल्ली अभी भी बीजिंग की नीयत को लेकर बेहद चौकन्ना है। चीन की सैन्य गतिविधियां, दक्षिण चीन सागर से लेकर ताइवान तक, भारत की चिंताओं को बढ़ाने वाली रही हैं।
इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ चीन के करीबी रिश्ते भी भारत के लिए हमेशा एक संवेदनशील मुद्दा रहे हैं। इसके बावजूद, वैश्विक आर्थिक वास्तविकताएं दोनों देशों को एक दूसरे को नजदीक ला रही हैं। इसमें रूस मध्यस्थ के रूप में मौजूद है। भारत और चीन का व्यापार 127 अरब डॉलर से ज्यादा का है। दोनों देशों ने हाल ही में व्यापारिक रुकावटें कम करने और निवेश परियोजनाओं को तेज करने के लिए कई कदम उठाए हैं। इस नई स्थिति को चीन गौर से देख रहा है।
इसी के प्रभाव में भारत ने चीनी नागरिकों के लिए वीजा फिर से शुरू किए हैं और कुछ क्षेत्रों में निवेश की मंजूरी को काफी आसान कर दिया है। यह दिखाता है कि प्रतिस्पर्धा और अविश्वास के बावजूद दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ते मजबूत बने हुए हैं। रूस-भारत-चीन के त्रिकोण की ताकत संख्याओं में साफ देकी जा सकती है। तीनों देशों की संयुक्त जीडीपी लगभग 54 ट्रिलियन डॉलर की है, जो दुनिया की अर्थव्यवस्था का एक-तिहाई बैठती है। इनकी सम्मिलित आबादी 3.1 अरब है, यानी पूरी दुनिया का लगभग 38 प्रतिशत हिस्सा, यह भी एक बड़ी ताकत है। इनका संयुक्त विदेशी मुद्रा भंडार 4.7 ट्रिलियन डॉलर है, जो वैश्विक संग्रह का 38 प्रतिशत है।
इनका संयुक्त रक्षा खर्च 549 अरब डॉलर है, जो दुनिया के सैन्य बजट का पांचवां हिस्सा है। ऊर्जा की खपत में भी इनका हिस्सा 35 प्रतिशत है। इन सबके बीच तीनों देशों की ताकतें अलग-अलग हैं। चीन उत्पादन और निर्यात में दुनिया का सबसे बड़ा प्लेयर है। रूस ऊर्जा संसाधनों और रक्षा तकनीक में मजबूत है। भारत सेवाओं, डिजिटल अर्थव्यवस्था और जनशक्ति के मामले में तेजी से उभर रहा है। यदि यह तीनों साझा रणनीति अपनाएं, तो दुनिया की मौजूदा व्यवस्था पर गहरा असर डाल सकते हैं।
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अमेरिकी डॉलर की एकाधिकार स्थिति को चुनौती देने में इन तीनों देशों की सम्मिलित भूमिका अहम हो सकती है। सवाल यही है कि क्या यह गठबंधन सच में आकार ले पाएगा। रूस और चीन के बीच गहरे रणनीतिक संबंध हैं, लेकिन भारत दोनों के बीच कैसे संतुलन कायम करेगा यह स्पष्ट नहीं है। नई दिल्ली के साथ मुश्किल यह है वह रक्षा और तकनीकी सहयोग में अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ भी रिश्ते बनाए रखना ेचाहती है। ऐसे में भारत पूरी तरह रूस-चीन के पाले में जाएगा, यह कुछ मुश्किल दिखाई देता है। फिर भी, शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के मंच पर अगर आरआईसी त्रिकोण का संकल्प उभरता है, तो यह दुनिया को यह संदेश देगा कि अब वैश्विक व्यवस्था एकध्रुवीय नहीं, बल्कि बहुध्रुवीय हो रही है।
यूरो-एशियाई क्षेत्र में नए व्यापार मार्ग, ऊर्जा सहयोग और स्थानीय मुद्राओं में लेन-देन जैसे कदम अमेरिका और उसके सहयोगियों की आर्थिक बढ़त को चुनौती दे सकते हैं। इसमें ब्राजील जैसे देशों के जुड़ने से इसकी ताकत और बढ़ेगी। परस्पर अविश्वास और प्रतिस्पर्धा के कारण गठबंधन कितने दिन टिकेगा, असली चुनौती यह है। भारत और चीन अपने मतभेदों को भुलाकर रूस के साथ साझा भविष्य गढ़ने का प्रयास करते हैं, तो यह तय है कि यह प्रयास, अमेरिका से इतर अपना साझा भविष्य गढ़ने की संभावनाओं के दरवाजे खोलेगा।