Aniruddh Singh
7 Oct 2025
नई दिल्ली। केद्र सरकार ने जीवन और स्वास्थ्य बीमा सेगमेंट से जीएसटी को हटाने की सिफारिश की है। इस सिफारिश को मंत्री समूह ने मंजूर कर लिया है। अब इस प्रस्ताव पर 3 और 4 सितंबर को नई दिल्ली में होने वाली जीएसटी काउन्सिल की बैठक में अंतिम निर्णय लिया जाएगा। इस समय बीमा प्रीमियम पर 18% जीएसटी लगता है। प्रस्तावित छूट से पहली नजर में ऐसा लगता है कि ग्राहकों को सीधी राहत मिलेगी, क्योंकि उन्हें प्रीमियम पर टैक्स नहीं देना पड़ेगा। लेकिन यह मामला उतना सीधा नहीं है, जितना दिखाई देता है। यह कदम बीमा कंपनियों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है, क्योंकि जीएसटी हटने के बाद वे इनपुट टैक्स क्रेडिट (आईटीसी) का लाभ खो देंगी, जिससे उनके खर्च बढ़ जाएंगे और लाभप्रदता भी प्रभावित होगी। जाहिर है, यह स्थिति बीमा कंपनियों को प्रभावित करेगी और अंततः इसके प्रभाव पालिसी धारकों तक आने तय माने जा रहे हैं।
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बीमा कंपनियों के खर्च का ढांचा काफी जटिल होता है। उदाहरण के लिए, प्रोटेक्शन प्रोडक्ट्स यानी टर्म इंश्योरेंस योजनाओं में शुरुआती सालों में कमीशन 35% से 40% तक होता है। समय के साथ यह घटकर औसतन 5-6% पर आ जाता है। इसके अलावा, कंपनियों को किराया, बिजली, टेलीकॉम और अन्य परिचालन खर्चों में लगभग 10% अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। वर्तमान व्यवस्था में इन खर्चों पर जो 2% सेवा कर (सर्विस टैक्स) आता है, उसे इनपुट टैक्स क्रेडिट से समायोजित कर लिया जाता है। लेकिन यदि जीएसटी को पूरी तरह हटा दिया जाता है तो कंपनियों को यह अतिरिक्त बोझ खुद उठाना होगा, क्योंकि इनपुट टैक्स क्रेडिट का फायदा नहीं मिलेगा। यह स्थिति बीमा उद्योग को दुविधा में डाल देती है। एक ओर अगर कंपनियां लागत बढ़ने के बाद प्रीमियम को बढ़ा देती हैं, तो ग्राहक हाथ से निकलने का खतरा होगा, क्योंकि टर्म इंश्योरेंस बाजार बहुत प्रतिस्पर्धी है।
यदि वे प्रीमियम नहीं बढ़ातीं तो उनका मुनाफा कम हो जाएगा। ऐसे में कंपनियों को तय करना होगा कि वे कम मार्जिन पर कारोबार जारी रखेंगी या फिर बाजार हिस्सेदारी खोने का जोखिम उठाएंगी। पूर्व इरडा सदस्य निलेश साथे का मानना है कि अगर कुछ कंपनियां अपनी मौजूदा योजनाओं को वापस लेकर उच्च प्रीमियम के साथ नई योजनाएं बाजार में लांच करती हैं, तो उन्हें ग्राहक गंवाने का खतरा रहेगा। वहीं अगर वे प्रीमियम नहीं बढ़ातीं, तो उनकी लाभप्रदता पर असर पड़ेगा। इसका सीधा मतलब है कि अब कंपनियों को तय करना होगा कि वे कम मुनाफे में काम करेंगी या फिर प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने को तैयार हैं। उद्योग विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बीमा कंपनियां अतिरिक्त बोझ ग्राहकों पर डालती हैं, तो कीमतें 6-10% तक बढ़ सकती हैं।
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यह स्थिति सरकार के उद्देश्य के बिल्कुल विपरीत होगी, क्योंकि बीमा पर जीएसटी हटाने का मकसद उपभोक्ताओं के लिए कीमतें कम करना, मांग को बढ़ावा देना और बीमा की पैठ को विस्तार देना है। अगर कीमतें घटने के बजाय बढ़ जाती हैं तो ग्राहकों के लिए यह कदम लाभकारी नहीं रह जाएगा। इस प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय 3-4 सितंबर को होने वाली जीएसटी काउंसिल की बैठक में लिया जाएगा। मंत्रियों के समूह की रिपोर्ट काउंसिल को सौंपी जाएगी और वहीं से अंतिम दिशा-निर्देश जारी होंगे। उद्योग जगत के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि हर कंपनी की लागत संरचना अलग होती है, लेकिन इनपुट टैक्स क्रेडिट का नुकसान निश्चित रूप से उनके खर्च को बढ़ा देगा। इससे कंपनियों को अपने बैलेंस शीट और मूल्य निर्धारण रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा।
वर्तमान में 5% और शून्य जीएसटी स्लैब में आने वाली योजनाओं पर इनपुट टैक्स क्रेडिट का लाभ नहीं मिलता। लेकिन 18% जीएसटी हटने से यह समस्या और बढ़ सकती है। इससे बचने के लिए कंपनियां कई तरह के विकल्प तलाश सकती हैं-जैसे मुनाफे का हिस्सा कम करना, प्रीमियम में धीरे-धीरे बढ़ोतरी करना या फिर ग्राहक को मिलने वाले लाभ को थोड़ा घटा देना। उदाहरण के लिए, अगर अभी ग्राहक को 18% की बचत दिख रही है, तो आगे यह केवल 15% तक सीमित रह सकती है। कुल मिलाकर, जीवन और स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी हटाने का निर्णय ग्राहकों के लिए राहत लेकर आ सकता है, लेकिन बीमा कंपनियों के लिए यह वित्तीय दबाव का कारण बन सकता है। अंतिम असर इस बात पर निर्भर करेगा कि कंपनियां बढ़े हुए खर्च को कैसे संभालती हैं-क्या वे इसे खुद वहन करेंगी, क्या इसे ग्राहकों पर डालेंगी, या फिर बीच का रास्ता अपनाएंगी। सरकार का लक्ष्य बीमा की पहुंच को व्यापक बनाना है।