Aniruddh Singh
14 Sep 2025
नई दिल्ली। हाल के महीनों में भारत और अमेरिका के रिश्तों में भारी तनाव देखने को मिला है। जिससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या भारत अब अपनी विदेश नीति में बड़ा बदलाव करते हुए चीन की ओर झुकाव दिखा सकता है। डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में भारत को अमेरिका का नजदीकी सहयोगी माना जा रहा था। हाल की परिस्थितियों ने इस धारणा को पूरी तरह से बदल दिया है। अमेरिका ने भारत से आयात होने वाले सामानों पर दंडात्मक कार्रवाई के रूप में उच्च टैरिफ लगाए हैं।
वाशिंगटन इस फैसले को यह कहकर सही ठहरा रहा है कि रूस तेल खरीदना बंद नहीं करके भारत ने खुद ही उच्च शुल्क की दीवार खड़ी की है। टैरिफ ही नही, डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने हाल के दिनों में पाकिस्तान से भी रिश्ते मजबूत करने की शुरुआत की है। हाल ही में कश्मीर में संघर्ष विराम के तुरंत बाद अमेरिका ने पाक सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया। स्वाभाविक रूप से नई दिल्ली को यह कदम रास नहीं आया और नतीजतन उसने दूसरे विकल्पों पर विचार करना शुरू कर दिया।
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इसी पृष्ठभूमि में, भारत ने चीन के साथ अपने रिश्ते सहज बनाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। पिछले वर्ष से ही इसके संकेत मिलने लगे थे, लेकिन हाल के महीनों में इसमें तेजी देखने को मिली है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी की नई दिल्ली यात्रा में दोनों देशों ने व्यापार और यात्रा संबंधों को पुनः शुरू करने पर सहमति जताई । इसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात साल बाद पहली बार चीन की यात्रा पर गए और वहां आर्थिक तथा राजनीतिक रिश्तों को मजबूत करने की दिशा में नए समझौते हुए। यहां तक कि नीति आयोग ने भी चीनी निवेश पर लगी कुछ पाबंदियों को ढीला करने का सुझाव दिया है। लेकिन यथार्थ यह है कि भारत और चीन के बीच गहरे अवरोध अब भी बने हुए हैं।
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चीनी सामान भारतीय उद्योगों पर पहले ही दबाव बना रहा है और भारत ने पिछले कुछ सालों में चीन के खिलाफ सबसे ज्यादा एंटी-डंपिंग उपाय लागू किए हैं। आने वाले समय में यह चुनौती और बढ़ सकती है, क्योंकि अमेरिका द्वारा लगाए गए शुल्कों से परेशान चीनी कंपनियां नए बाजारों की तलाश में भारत का रुख कर सकती हैं। सुरक्षा का मसला भी बेहद गंभीर है। हिमालयी सीमा विवाद अब तक अनसुलझा है, पाकिस्तान के साथ चीन की करीबी भारत के लिए स्थायी समस्या बनी हुई है और तिब्बत में बनने वाले विशाल जलविद्युत परियोजना ने भारत में जलसुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ा दी है। इन तमाम जटिलताओं को देखते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि भारत पूरी तरह से चीन के पाले में नहीं जा सकता।
इसके बजाय, भारत के लिए अधिक संभावित विकल्प यही है कि वह गुट-निरपेक्षता की अपनी पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित करे। गुटनिरपेक्षता ही वह नीति है जिसने शीत युद्ध के समय भारत को अमेरिकी और सोवियत खेमों में से किसी एक के साथ पूरी तरह से खड़े होने से रोका था। इसी नीति पर चलते हुए भारत ने अमेरिका के भारी दबाव के बावजूद रूस से तेल खरीदना जारी रखा है। आर्थिक दृष्टि से भी भारत का दीर्घकालिक हित अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के साथ जुड़ा है। भले ही ट्रंप की नीतियों ने फिलहाल भारत की आकर्षण शक्ति को कम किया हो, लेकिन उत्पादन आधार के रूप में भारत को अमेरिका-नेतृत्व वाले ब्लॉक से कहीं अधिक लाभ मिलने की संभावना है। यही कारण है कि भारत चीन की ओर निर्णायक रूप से नहीं जाएगा, बल्कि परिस्थितियों को देखते हुए स्वतंत्र और संतुलित विदेश नीति पर ही जोर देगा।