Aniruddh Singh
30 Sep 2025
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30 Sep 2025
Aniruddh Singh
29 Sep 2025
नई दिल्ली। केंद्र सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार अप्रैल से अगस्त 2025 की अवधि में देश का राजकोषीय घाटा 5.98 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है, जो पूरे वित्त वर्ष 2025-26 के लिए तय लक्ष्य का लगभग 38 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि राजकोषीय घाटा वह स्थिति होती है, जब सरकार का कुल व्यय उसकी कुल आय से अधिक हो जाता है और इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है। इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था, निवेश माहौल और महुंगाई की स्थिति पर पड़ता है। जारी आंकड़ों से साफ देखा जा सकता है कि इस अवधि में सरकार का खर्च राजस्व वृद्धि से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ा है।
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सरकार की कर वसूली यानी नेट टैक्स प्राप्तियां घटकर 8.1 लाख करोड़ रुपए के स्तर पर आ गई हैं, जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में यह 8.7 लाख करोड़ रुपये थी। इसका मतलब है कि कुछ क्षेत्रों में आर्थिक सुस्ती या कर रियायतों की वजह से कर संग्रह में गिरावट आई है। इसके विपरीत गैर-कर राजस्व यानी सरकार द्वारा लिए जाने वाले लाभांश, शुल्क और अन्य आय में अच्छा इजाफा हुआ है, जो इस अवधि में 4.4 लाख करोड़ रुपए रहा, जबकि पिछले साल यह 3.3 लाख करोड़ रुपए था। इससे यह संकेत मिलता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और अन्य गैर-कर स्रोतों से सरकार को अधिक आय प्राप्त हुई है।
सबसे बड़ा कारण जो राजकोषीय घाटा बढ़ाने में योगदान दे रहा है, वह है सरकारी खर्च। अप्रैल से अगस्त 2025 में सरकार का कुल व्यय 18.8 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गया है, जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में यह 16.5 लाख करोड़ रुपये था। इस खर्च में खासतौर से पूंजीगत व्यय का योगदान उल्लेखनीय है। पूंजीगत व्यय से तात्पर्य उन खर्चों से है जो बुनियादी ढ़ांचे और स्थायी संपत्तियों पर होते हैं, जैसे सड़क, रेलवे, बंदरगाह, ऊर्जा और अन्य आधारभूत परियोजनाएँ। इस वर्ष पूंजीगत व्यय 4.3 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गया है, जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में यह केवल 3 लाख करोड़ रुपये था। इसका मतलब है कि सरकार ने विकास परियोजनाओं पर ज़्यादा निवेश किया है।
कुल मिलाकर इस स्थिति का अर्थ यह है कि सरकार की कमाई की तुलना में उसका खर्च कहीं अधिक है। अल्पकालिक रूप से यह अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने वाला कदम हो सकता है क्योंकि अधिक पूंजीगत व्यय से रोजगार सृजन और आर्थिक गतिविधियों को गति मिलती है। लेकिन दूसरी ओर, राजकोषीय घाटा बढ़ने का मतलब है कि सरकार को अधिक उधारी लेनी पड़ेगी, जिससे भविष्य में ब्याज का बोझ बढ़ेगा और निजी निवेश पर असर पड़ सकता है। घाटा बहुत ज्यादा बढ़ता है तो अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत की वित्तीय स्थिरता को लेकर चिंता जता सकती हैं।
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सरकार का लक्ष्य होता है कि वित्तीय वर्ष के अंत तक राजकोषीय घाटा नियंत्रित दायरे में रहे। अभी यह केवल 5 महीनों में ही 38 प्रतिशत तक पहुंच चुका है, जो यह दर्शाता है कि आने वाले महीनों में वित्तीय प्रबंधन और चुनौतीपूर्ण होगा। इसीलिए, सरकार को एक ओर जहाँ राजस्व संग्रह बढ़ाने के उपाय करने होंगे, वहीं दूसरी ओर खर्चों को प्राथमिकता के आधार पर नियंत्रित करना होगा। यदि इन दोनों मोर्चों पर संतुलन कायम किया जाता है तो राजकोषीय घाटा वर्ष के अंत तक लक्ष्य से बाहर नहीं जाएगा। इस प्रकार, वर्तमान आँकड़े सरकार के सामने वित्तीय अनुशासन और विकास, दोनों के बीच संतुलन साधने की चुनौती को उजागर करते हैं।