Naresh Bhagoria
14 Nov 2025
मुंडा जनजाति में जन्मे बिरसा मुंडा केवल एक नेता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक, समाज सुधारक और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक बनकर उभरे। अल्पायु में ही उन्होंने जनजातीय समाज को एकजुट किया, अपनी भूमि और संस्कृति की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई और उलगुलान जैसे बड़े विद्रोह का नेतृत्व किया। अपनी दिव्य छवि, चमत्कारिक करिश्मे और सामाजिक सुधारों के कारण लोग उन्हें ‘भगवान बिरसा’ कहने लगे -एक ऐसा योद्धा जिसने जनजातीय इतिहास की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को बंगाल प्रेसीडेंसी (वर्तमान झारखंड राज्य के खूंटी जिले) के उलीहातू गांव में हुआ था। कुछ स्रोतों के अनुसार, उनका जन्म 18 जुलाई 1872 को हुआ था। लोकगीतों में उनके जन्म स्थान को लेकर भ्रम है और उलीहातू या चाकद को उनकी जन्मभूमि के रूप में दर्शाया गया है। उलीहातू उनके पिता सुगना मुंडा का गांव था, और यहां उनके बड़े भाई कोम्टा मुंडा का घर आज भी खंडहर अवस्था में मौजूद है। अधिकांश समय वे अपने माता-पिता के साथ एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते हुए बिताते रहे। सालगा में शिक्षक जयपाल नाग के मार्गदर्शन में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा पूरी की। नाग की सलाह पर उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार किया, लेकिन कुछ समय बाद मोहभंग होने पर स्कूल छोड़ दिया।
1886 से 1890 के बीच बिरसा चाइबासा में रहे, जहाँ सारदारी आंदोलन का प्रभाव चरम पर था। यह आंदोलन ब्रिटिश दमन और बाहरी लोगों (दिकुओं) के शोषण के खिलाफ शांतिपूर्ण जनजातीय प्रतिरोध था। मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव और औपनिवेशिक नीतियों ने आदिवासियों में असंतोष बढ़ा दिया। यही अनुभव बिरसा के भीतर ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के प्रति गहरी आलोचना और प्रतिरोध की भावना को दृढ़ करने वाले बने।
जल्द ही बिरसा एक ऐसे जननायक के रूप में उभरे जो राजनीतिक विद्रोह को सामाजिक और आध्यात्मिक सुधार से जोड़ते थे। बंगाल प्रेसीडेंसी (आज का झारखंड) में उन्होंने मिलेनरियन आंदोलन को दिशा दी, जहाँ वे आदिवासियों की जमीनें हड़पने और उन्हें बंधुआ बनाने वाली औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध मुखर हुए।
‘धरती अब्बा’ के रूप में वे लोगों से अपनी संस्कृति से जुड़ने, भूमि की रक्षा करने और सामाजिक बुराइयों को त्यागने का आह्वान करते रहे। वैष्णव साधु से प्रेरणा पाकर उन्होंने तुलसी पूजा और जनेऊ धारण जैसी परंपराएँ अपनाईं, जिससे उनकी आध्यात्मिक छवि और प्रबल हुई।
बिरसा ने बिरसाइट धर्म की स्थापना की, जिसने मुंडा और उरांव समुदाय को एक आध्यात्मिक धागे में बाँध दिया। यह तेजी से बढ़ते ईसाई मिशनरी अभियानों के लिए सीधा चुनौती बनकर उभरा। वे अपने अनुयायियों से जादूटोना छोड़ने, पशु बलि से दूरी बनाने, शराब से परहेज़ करने और केवल एक ईश्वर की उपासना करने को कहते थे।
उन्हें लोग केवल नेता नहीं, बल्कि ‘भगवान’ मानने लगे, एक ऐसे दिव्य व्यक्तित्व के रूप में जो चमत्कारिक शक्तियों से संपन्न था और अपनी भूमि, संस्कृति व सम्मान की रक्षा करने आया था।
1899 में बिरसा ने उलगुलान (महाआंदोलन) का नेतृत्व किया। गुरिल्ला रणनीतियों के सहारे उन्होंने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी और लोगों को ‘बिरसा राज’ के अपने स्वराज दृष्टिकोण का पालन करने को कहा, जहाँ न ब्रिटिश कानून लागू होते, न लगान। बेहतर हथियारों से लैस अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबा दिया, लेकिन संघर्ष की लहर कभी थमी नहीं।

जनजातीय गौरव दिवस 15 नवंबर 2021 को भारत सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा नामित किया गया था। यह निर्णय 10 नवंबर 2021 को हुई बैठक में लिया गया। इस दिवस का उद्देश्य आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को याद करना है, जो आदिवासी समाज के महान नेता थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ "उलगुलान" आंदोलन का नेतृत्व किया और आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया। इस दिन का उद्देश्य भगवान बिरसा मुंडा के योगदान को याद करना, आदिवासी समुदाय की संस्कृति और अधिकारों का सम्मान करना है। यह दिवस आदिवासी समुदाय को अपने इतिहास, संघर्ष और अधिकारों के प्रति जागरूक करता है और उनकी पहचान को मान्यता देता है।
केवल 25 वर्ष के जीवन में बिरसा मुंडा ने जिस आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जागरण को जन्म दिया, उसने उन्हें लोगों की नज़रों में ‘भगवान’ बना दिया। उनकी विरासत आज भी आदिवासी अस्मिता, आत्मसम्मान और अधिकारों की सबसे सशक्त प्रतीक है।