Hemant Nagle
22 Dec 2025
भोपाल। मध्यप्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने को लेकर चल रही लंबी कानूनी लड़ाई अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। इस संवेदनशील और बहुप्रतीक्षित मुद्दे की अंतिम सुनवाई 22 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में होगी, जिसे कोर्ट ने "अत्यंत महत्वपूर्ण" मानते हुए "टॉप ऑफ द बोर्ड" पर सूचीबद्ध किया है। यानी यह सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की उस दिन की कार्यसूची में पहले नंबर पर होगी।
मध्यप्रदेश सरकार ने 2019 में ओबीसी वर्ग को 27% आरक्षण देने का कानून पारित किया था, जिससे आरक्षण की कुल सीमा 73% तक पहुंच गई थी। इस कानून को चुनौती देते हुए अभ्यर्थी शिवम गौतम ने मप्र हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी, जिसके बाद 4 मई 2022 को हाईकोर्ट ने इस पर अंतरिम रोक लगाते हुए आरक्षण सीमा को 14% तक सीमित कर दिया।
इसके चलते सरकारी भर्तियों में बड़ी संख्या में ओबीसी उम्मीदवारों के पद 13% होल्ड पर रख दिए गए। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर हो गया।
5 अगस्त को हुई पिछली सुनवाई में ओबीसी महासभा के अधिवक्ता वरुण ठाकुर ने कोर्ट को बताया कि परीक्षाएं पूरी हो चुकी हैं, लेकिन नियुक्तियां रोक दी गई हैं। छत्तीसगढ़ की तरह मध्यप्रदेश को भी राहत दी जाए। वहीं, अनारक्षित वर्ग की ओर से यह तर्क रखा गया कि 50% से अधिक आरक्षण संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है।
22 जुलाई को हुई सुनवाई में मध्यप्रदेश सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट से राहत मांगी थी। सरकार ने तर्क दिया कि जैसे छत्तीसगढ़ में 58% आरक्षण को कोर्ट ने मान्यता दी, वैसे ही मध्यप्रदेश में भी 27% ओबीसी आरक्षण लागू करने की अनुमति दी जाए ताकि रुकी हुई भर्तियों को आगे बढ़ाया जा सके।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा कि 22 सितंबर 2022 को जारी किया गया नोटिफिकेशन कानून के खिलाफ क्यों जारी किया गया था? सरकार ने इस पर जवाब दिया कि वह इस नोटिफिकेशन को अनहोल्ड करने के समर्थन में है और उसकी मंशा ओबीसी को पूर्ण 27% आरक्षण देने की है।
अब यदि सुप्रीम कोर्ट 4 मई 2022 के हाईकोर्ट स्टे को हटाता है, तो मध्यप्रदेश में 27% ओबीसी आरक्षण लागू हो सकेगा। इससे प्रतियोगी परीक्षाओं में होल्ड पर रखे गए 13% पदों की नियुक्ति का रास्ता भी साफ होगा।
गौरतलब है कि इस मामले से जुड़ी 70 से अधिक याचिकाएं अब तक सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर हो चुकी हैं। अंतिम सुनवाई में शीर्ष अदालत का निर्णय केवल मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में आरक्षण की संवैधानिक व्याख्या और सीमाओं को लेकर भी एक महत्वपूर्ण मिसाल बन सकता है।