Manisha Dhanwani
21 Oct 2025
नई दिल्ली/पटना। बिहार में चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) यानी वोटर लिस्ट वेरिफिकेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अहम निर्देश दिए। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने तीसरे दिन की सुनवाई के बाद आदेश दिया कि जिन 65 लाख मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट लिस्ट में नहीं हैं, उनके नाम 48 घंटे के भीतर जिला निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट पर डाले जाएं। साथ ही, उनके नाम काटने की वजह भी बताई जाए।
यह सूची सभी संबंधित BLO कार्यालयों, पंचायत भवनों और BDO कार्यालयों के बाहर चस्पा की जाएगी, और इसकी सूचना अखबारों, टीवी व रेडियो के जरिए दी जाएगी। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि जिनका नाम सूची में नहीं है, उनके पहचान पत्र के रूप में आधार कार्ड को मान्य किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को मंगलवार तक पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की जानकारी देने का समय दिया। जस्टिस सूर्यकांत ने स्पष्ट किया कि जिन लोगों ने फॉर्म जमा किया है, वे फिलहाल मतदाता सूची में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि यह मामला नागरिकों के मताधिकार से जुड़ा है, इसलिए निष्पक्ष प्रक्रिया जरूरी है। जस्टिस बागची ने सवाल किया कि जब नाम बोर्ड पर लगाए जा सकते हैं तो वेबसाइट पर क्यों नहीं डाले जा सकते।
आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने गोपनीयता के पुराने फैसले का हवाला देते हुए आपत्ति जताई, लेकिन अदालत ने खोज योग्य (searchable) स्वरूप में जानकारी उपलब्ध कराने की सहमति जताई। BLO के मोबाइल नंबर वेबसाइट पर डालने के प्रस्ताव को अदालत ने सकारात्मक बताया।
सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत ने आयोग से पूछा कि अगर 22 लाख लोगों को मृत पाया गया है, तो उनके नाम ब्लॉक और सब-डिवीजन स्तर पर क्यों न बताए जाएं। आयोग ने कहा कि इस प्रक्रिया में BLO के साथ बूथ लेवल एजेंट भी शामिल हैं। जस्टिस बागची ने सुझाव दिया कि मृत, प्रवासी और डुप्लीकेट मतदाताओं के नाम वेबसाइट पर डाले जाएं।
द्विवेदी ने कहा कि राज्य सरकार की वेबसाइट पर यह संभव नहीं है, लेकिन राज्यों के CEO की वेबसाइट पर जानकारी उपलब्ध है। अदालत ने इसे स्वीकार किया। अब इस मामले में अगली सुनवाई 22 अगस्त को होगी।
सुनवाई की शुरुआत उस याचिका से हुई जिसमें 1 जनवरी 2003 को आधार मानकर मतदाता सूची संशोधन की प्रक्रिया को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता की ओर से वकील निजाम पाशा ने कहा कि मतदाता सूची में नाम शामिल करने की प्रक्रिया हर तरह के रिवीजन में एक जैसी होती है।
उन्होंने आरोप लगाया कि 2003 को आधार तिथि बनाने का कोई संवैधानिक औचित्य नहीं है और इससे युवाओं को अतिरिक्त दस्तावेजी प्रक्रिया से गुजरना पड़ रहा है। उनका दावा है कि इससे युवा मतदाताओं को बाहर रखने और एंटी-इन्कंबेंसी वोट घटाने का इरादा झलकता है। पाशा ने कहा कि अभी तक 65 लाख मतदाता सूची से बाहर हैं और जांच में साफ होगा कि इनमें युवाओं की संख्या अधिक है।