इंदौर – “दूध की रखवाली बिल्ली को”—यह कहावत यहाँ एकदम खरी उतरती दिख रही है। मध्य प्रदेश का वही कुख्यात व्यावसायिक परीक्षा मंडल, जिसका नाम बदलकर कर्मचारी चयन मंडल कर दिया गया था, उसे फिर से पुलिस भर्ती परीक्षा की बागडोर थमा दी गई। और नतीजा? युवाओं के सपनों पर सीधी चोट। आरक्षक भर्ती 2025 की तारीख सामने आते ही प्रदेश के युवाओं में उत्साह था, लेकिन जैसे ही एडमिट कार्ड हाथ आए, हालात पलट गए। मण्डल ने ऐसी शर्तें ठोक दीं कि अभ्यर्थियों में जबरदस्त आक्रोश फैल गया। पहली मार — रिटर्न के साथ फिजिकल टेस्ट की भारी फीस पहले ही वसूल ली गई। दूसरी मार — परीक्षा केंद्र ऐसे जिलों में थमा दिए गए, जहाँ पहुँचना भी किसी सजा जैसा लग रहा है। हजारों मीटर नहीं… सैकड़ों किलोमीटर दूर तक धकेल दिए गए केंद्र, जहाँ पहुँचने के लिए अभ्यर्थियों को 2–3 दिन पहले निकलना पड़ेगा। इतनी अव्यवस्था, इतना तंत्र का अंधेरापन… कि परीक्षा से पहले ही कई महिला व पुरुष उम्मीदवार मानसिक रूप से टूट चुके हैं। सवाल वही, जाएँ तो जाएँ कहाँ?
परीक्षा से पहले ही 200 का फटका — मण्डल की करोड़ों की वसूली, अभ्यर्थियों की जेब पर सीधा वार
पुलिस भर्ती परीक्षा शुरू होने से पहले ही मण्डल ने अभ्यर्थियों को ऐसा झटका दिया कि लिखित परीक्षा से पहले ही उनका गुस्सा फूट पड़ा। अभ्यर्थियों का आरोप है कि लिखित परीक्षा के साथ ही मण्डल ने 200 रुपए फिजिकल टेस्ट की फीस पहले से ही वसूल ली, जबकि यह फीस केवल उन्हीं से ली जानी चाहिए जो लिखित में पास हों और फिजिकल में शामिल हों। लेकिन मण्डल ने नियमों की परवाह किए बिना लाखों अभ्यर्थियों से यह 200 रुपए पहले ही ठोक दिए, जिससे करोड़ों की सीधी वसूली हो गई। सीधी भाषा में कहें तो, अब तक फिजिकल हुआ भी नहीं, पर मण्डल ने पहले ही फिजिकल का किराया काट लिया। हकीकत और भी कड़वी है लिखित परीक्षा के बाद तो सिर्फ सैकड़ों ही अभ्यर्थी फिजिकल में पहुँच पाएंगे, बाकी लाखों जिनसे 200-200 लेकर करोड़ों की मोटी रकम बटोरी गई… वे कभी फिजिकल ग्राउंड तक पहुंच भी नहीं पाएंगे। अभ्यर्थियों का कहना है कि यह साफ-साफ “प्री-प्लांड वसूली” है, जिसमें सिस्टम ने लाखों छात्रों को बिना कारण लूटा और कोई सवाल पूछने वाला नहीं। सबसे बड़ा सवाल यह है ,क्या मण्डल ने जानबूझकर लाखों की यह वसूली की? क्या यह सरकारी ठप्पे के साथ कारोबार चल रहा है? और सबसे अहम… इसके खिलाफ आवाज कौन उठाएगा? अभ्यर्थियों की जेब से निकला हर 200 रुपए का नोट, मण्डल की कमाई की थैली में सीधा गिरा लेकिन न्याय और जवाबदेही? वो आज भी गायब है।
महिलाओं से भेदभाव की हद पार — इंदौर, उज्जैन, धार, देवास की लड़कियों को फेंक दिया सीधी जिले में आरक्षक भर्ती 2025 में महिलाओं के साथ भेदभाव का खुला खेल दिखाई दिया। इंदौर, धार, रतलाम, देवास, उज्जैन इन जिलों की किसी भी महिला अभ्यर्थी को अपने जिले में केंद्र न देकर, सबको सीधी में फेंक दिया गया। सीधी—एक ऐसा जिला जहाँ न ढंग से ट्रेन की सुविधा, न सीधी कनेक्टिविटी और न ही सुरक्षित ठहरने के इंतजाम। रेल स्टेशन की कमी, सीमित बसें और 2800 रुपए का किराया… क्या एक गरीब परिवार की बेटी 1000 रुपए परीक्षा फीस भरकर, ऊपर से 5000 रुपए खर्च कर 18 घंटे का खतरनाक सफ़र तय करेगी? क्या यही “महिला आरक्षण” है?
(1) पहला अभ्यर्थी की आपबीती — माँ बर्तन माँजती है, पिता मजदूर… सपनों को सीधी की दूरी ने कुचल दिया बिना नाम बताए एक महिला अभ्यर्थी ने बताया, उसकी माँ दूसरों के घरों में बर्तन माँजती हैं, पिता मजदूर हैं। घर में रोज की कमाई से मुश्किल से पेट भरता है। परिवार की हालत ऐसी कि “रोज गड्ढा खोदो, पानी भरो” वाली स्थिति। घर की बेटी ने पुलिस में भर्ती होकर परिवार का सहारा बनने का सपना देखा था। दिन-रात मेहनत की, दौड़ लगाई, तैयारी की… पर एडमिट कार्ड मिला तो जैसे पैरों तले जमीन निकल गई। केंद्र — सीधी। इंदौर से सीधी की बस 2800 की। ट्रेन हफ्ते में सिर्फ दो दिन। ठहरने की जगह नहीं, सुरक्षा की गारंटी नहीं। और जेब में इतने पैसे भी नहीं। उसका कहना था, “क्या मण्डल ने जानबूझकर ऐसा किया है? क्या महिलाओं को पुलिस में आने ही नहीं देना चाहते?”
(2) दूसरी अभ्यर्थी: पिता नहीं, परिवार की जिम्मेदारी कंधों पर… पर केंद्र देकर जैसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। दूसरी अभ्यर्थी ने बताया,उसके पिता नहीं हैं। परिवार में तीन बहनें और चार सदस्य। घर का खर्च जैसे-तैसे चलता है। उसने रोजगार और सम्मान की उम्मीद से पुलिस भर्ती को अपनाया था। लेकिन जैसे ही एडमिट कार्ड आया, परीक्षा केंद्र देखकर ऐसा लगा जैसे मण्डल ने पहले ही उसे “बाहर का रास्ता” दिखा दिया हो। पाँच हजार रुपए का खर्च लगाकर सीधी जाना, वहाँ ठहरने की व्यवस्था नहीं, साधन नहीं—सब कुछ उसके खिलाफ खड़ा हो गया।उसका सवाल सीधा था। “अगर महिलाओं को भर्ती नहीं करना था, तो फिर महिला आरक्षण का ढोंग ही क्यों किया गया?”
नाम बदले , दाग नहीं — व्यापमं का नाम तीसरी बार बदला, बदनामी वही की वही
व्यापमं का दाग इतना गहरा था कि सरकार को बार-बार इसका चेहरा धोने की कोशिश करनी पड़ी। पहली बार—व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) का नाम बदलकर प्रोफेशनल एग्जामिनेशन बोर्ड (PEB) कर दिया गया।भवन का नाम भी सुधारने की कोशिश—चयन भवन। पर सच्चाई? नाम बदला, सिस्टम नहीं। विधानसभा में सरकार ने खुद यह स्वीकार किया कि सिर्फ पिछले तीन सालों में ही PEB की 5 बड़ी परीक्षाओं में गड़बड़ी पकड़ी गई, और सभी परीक्षाएँ दोबारा आयोजित करनी पड़ीं। इन गड़बड़ियों के लिए एजेंसी पर 2 करोड़ 25 लाख रुपए से ज्यादा का जुर्माना लगाया गया। दोषी परीक्षाओं की लिस्ट खुद सिस्टम की पोल खोलती है। इतना कुछ होने के बावजूद भी “सुधार” के नाम पर फिर वही पुराना खेल, तीसरी बार फिर नाम बदल दिया गया। लेकिन सवाल वही खड़ा है, क्या नाम बदलने से फर्जीवाड़े की सड़ांध कम हो जाती है? क्या दाग सिर्फ बोर्ड की नेमप्लेट बदलने से धुल जाते हैं? व्यापमं हो, PEB हो या नया नाम, सवाल जनता का यही है: क्या सिस्टम बदलेगा या सिर्फ बोर्ड का बोर्ड बदलता रहेगा?