Naresh Bhagoria
18 Nov 2025
Naresh Bhagoria
18 Nov 2025
Mithilesh Yadav
18 Nov 2025
Naresh Bhagoria
18 Nov 2025
प्रवीण श्रीवास्तव
भोपाल। अगर आपको भी कबूतरों को दाना डालने से मानसिक सुकून मिलता है तो संभल जाएं.. यह शौक जानलेवा हो सकता है। कबूतर दाने के साथ अब लोगों के फेफड़े भी चुग रहे हैं। यह सही है... राजधानी सहित प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में हर रोज 20 से 25 मरीज ऐसे पहुंच रहे हैं, जो कबूतरों के संपर्क में आने से हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस नामक बीमारी से पीड़ित हैं। यही नहीं, इनमें से 25 फीसदी मरीजों को भर्ती तक करना पड़ रहा है। पिछले तीन से चार सालों में इंटर स्टीसियल लंग्स डिजीज (आइएलडी) के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसमें भी हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का आंकड़ा सबसे ज्यादा है।
यह जानलेवा बीमारी है, जिसका अब तक कोई इलाज नहीं है, सिर्फ रोकथाम ही इसका बचाव है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त को कबूतरों को दाना डालने के बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने कबूतरों को दाना देने की राहत वाली पल्लवी पाटिल एवं अन्य की याचिका पर सख्त रुख अपनाते हुए रोक बरकरार रखी थी। सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि कबूतरों की बीट और पंख से दमा, हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस और लंग फाइब्रोसिस जैसी गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह रोक बेहद जरूरी है, क्योंकि हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस बीमारी ना केवल गंभीर है, बल्कि जानलेवा भी है। हालांकि कई संस्थाएं इस निर्णय से खुश नहीं हैं।
-इंटरस्टीशियल लंग्स डिजीज में हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस एक प्रकार है, जिसमें फेफड़ों की सूजन किसी बाहरी एलर्जन के लगातार संपर्क में आने से होती है। कबूतरों का सूखा मल, पंख, माइक्रोफेदर्स इसका प्रमुख कारण हो सकते हैं।
-जब कोई व्यक्ति इन सूक्ष्म कणों को सांस के साथ अंदर लेता है, तो उसके फेफड़ों का इम्यून सिस्टम इन कणों को खतरनाक मानकर उन पर हमला कर देता है। इस प्रक्रिया में सूजन आ जाती है, जिससे फेफड़ों के ऊतक क्षतिग्रस्त होने लगते हैं। लंबे समय तक संपर्क रहने पर यह सूजन फाइब्रोसिस में बदल सकती है, जिससे फेफड़े कठोर हो जाते हैं और उनकी ऑक्सीजन लेने की क्षमता कम हो जाती है।
-कबूतरों के पंख और मल में बैक्टीरिया, फंगस और प्रोटीन पाए जाते हैं, जो हवा में फैलकर वायरस जैसे संक्रमण का रूप नहीं बल्कि एलर्जिक-इन्फ्लेमेटरी रिएक्शन पैदा करते हैं। इससे प्रभावित व्यक्ति में खांसी, सांस लेने में कठिनाई, बुखार, थकान और सीने में जकड़न जैसे लक्ष्य शामिल होते हैं। यदि समय पर कबूतरों के संपर्क से दूरी न बनाई जाए और उपचार न शुरू किया जाए तो यह बीमारी क्रॉनिक होकर फेफड़ों की स्थायी क्षति का कारण बन सकती है।
पहला मामला जबलपुर का है, जहां 30 साल की एक युवती करीब एक साल से सांस फूलने की बीमारी से परेशान थी। कई जगह दिखाया लेकिन कोई आराम नहीं मिला। बाद में सीटी स्कैन और हिस्ट्री के आधार पर पता चला कि उसे हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस बीमारी है। युवती ने डॉक्टर को बताया कि उसे कबूतरों से बेहद लगाव है। यहां तक कि सोते समय उसके बेड पर भी कबूतर बैठे रहते हैं। इसी वजह से वह हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का शिकार हो गई। जिसके बाद करीब छह माह के लगातार उपचार के बाद ही वह फिर से ठीक हो सकी।
दूसरा मामला इंदौर का है। इंदौर के मारुति नगर में रहने वाले एक परिवार के सभी चार सदस्यों को सांस फूलने की बीमारी थी। डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने शुरुआत में इसे दमा मानकर इलाज शुरू किया। एक बार बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उनके घर के आसपास बहुत सारे कबूतर रहते हैं। यह जानकारी मिलने के बाद डॉक्टर ने उपचार की दिशा बदली और हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस का इलाज शुरू किया। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने घर बेच कर वह जगह छोड़ दी।
जबलपुर के श्वांस रोग विशेषज्ञ डॉ. ऋषि डावर ने कहा कि फिलहाल इस बीमारी को लेकर जागरुकता नहीं है। ज्यादातर लोग इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते। यही वजह है कि वे उस परिस्थिति से दूर नहीं होते, जो इस रोग की मुख्य वजह है। इसका कोई सामान्य टेस्ट नहीं होने से डॉक्टर भी इसके बारे ज्यादा बात नहीं करते। वे सिर्फ मरीज की हिस्ट्री के आधार पर इसका अंदाजा लगाते हैं। इसका पता लगाने के लिए पैनल ब्लड टेस्ट होता है, जो करीब 35 हजार रुपए का होता है। यही नहीं, एक्स-रे में फेफड़ों में सफेद लाइनें ही दिखती हैं। सीटी स्कैन और हिस्ट्री के आधार पर स्टेरॉयड देना पड़ता है। क्षेत्रीय श्वसन रोग संस्थान भोपाल के एचओडी डॉ. लोकेन्द्र दवे ने कहा यह अब एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। बीते दस सालों में करीब 30 फीसदी मरीज बढ़े हैं। भोपाल में कबूतर ज्यादा होते हैं, ऐसे में हमारी ओपीडी में हर दिन पांच से छह मामले आते हैं। इनमें से एक को भर्ती भी करना पड़ता है। पहले भी मरीज मिलते थे, लेकिन इसे दमा या अस्थमा मानकर ही इलाज करते थे। अब इसका इंडीविजुअल ट्रीटमेंट किया जाता है।