Shivani Gupta
3 Dec 2025
‘सच तो यह है कि हम न जान लेने वालों को सजा दिला पाए और न जान बचाने वालों को शाबासी…’ वेब सीरीज The Railway Men का यह डायलॉग शादाब दस्तगीर के दिल को छू गया। शादाब, जो 1984 में भोपाल रेलवे स्टेशन पर अपने पिता गुलाम दस्तगीर के साथ थे, इस काली रात की सच्चाई को बखूबी जानते हैं। लेकिन वेब सीरीज में उनके पिता के किरदार का नाम बदलकर 'इफ्तेकार सिद्दिकी' कर दिया गया, और कहानी में कई तथ्यहीन घटनाएं जोड़ दी गईं।
शादाब उस वक्त 13-14 साल के थे। 2 दिसंबर की रात उनके पिता, डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट गुलाम दस्तगीर, रेलवे स्टेशन के लिए निकले। तभी मोहल्ले में चीख-पुकार मची। हवा में खतरनाक गंध फैल गई- जैसे मिर्ची या गोभी को बड़े पैमाने पर उबाला जा रहा हो। लोगों ने जान बचाने के लिए जेल पहाड़ी की ओर भागना शुरू किया।
जब सुबह शादाब अपने पिता को ढूंढने साइकिल से स्टेशन पहुंचे तो सड़कों पर बिखरे शव और हाहाकार का मंजर देखकर वे स्तब्ध रह गए। स्टेशन पर भी वही डरावना दृश्य था, मृतकों की झड़ी और हांफते-खांसते लोग। गुलाम दस्तगीर ने देखा कि उनके सहयोगी बेहोश और मृत पड़े हुए हैं।
इस खौफनाक मंजर को देखते हुए कई अधिकारी और ट्रेन के लोको पायलट ने ट्रेन को आगे बढ़ाने से मना किया, लेकिन गुलाम दस्तगीर ने समझदारी और साहस का परिचय दिया। उन्होंने अपने जोखिम पर ट्रेन को रवाना करवाया और आसपास के स्टेशनों पर संदेश भेजकर और ट्रेनों को रोककर हजारों यात्रियों की जान बचाई।
गैस का असर इतना भयंकर था कि नाक में गीला कपड़ा बांधकर ही सांस ली जा सकती थी। गुलाम दस्तगीर ने पूरी रात इसी संघर्ष में बिताई। वह एक गुमनाम नायक बन गए, जिनकी वीरता अब तक बहुत कम लोगों के सामने आई।
2-3 दिसंबर 1984 की रात न केवल भोपाल की सबसे भयंकर त्रासदी थी, बल्कि यह याद दिलाती है कि असली नायक अक्सर गुमनाम रह जाते हैं। गुलाम दस्तगीर जैसे अधिकारी जिन्होंने हजारों लोगों की जान बचाई, उनके योगदान को भूलना नहीं चाहिए। सच्चाई और वीरता का सम्मान हमेशा याद रखा जाना चाहिए। गुलाम दस्तगीर 2003 में गैस की वजह से गंभीर बीमारियों से चल बसे। हादसे के बाद उनका जीवन इलाज और परिवार की देखभाल में बीता। बावजूद इसके, उनके परिवार ने संघर्ष किया और अपने पैरों पर खड़े होकर घर संभाला।
शादाब दस्तगीर का संदेश है- न जान लेने वालों को सजा मिली और न जान बचाने वालों को शाबासी। आज भी यह शब्द उस रात की गूंज हैं और याद दिलाते हैं कि असली नायक कभी नजरअंदाज नहीं किए जा सकते।