भोपाल

पहली बार जैन धर्म के सिद्धांतों पर नाटक आचार्य स्थूलिभद्र का मंचन, 8 महीने में तैयार हुई प्रस्तुति

आचार्य स्थूलिभद्र नाटक का मंचन पहली बार भोपाल में किया गया। नाटक के निर्देशक नितिन तेजराज ने कहा कि मप्र में इसका यह पहला मंचन है। जैन धर्म के सिद्धांतों व शिक्षाओं को वर्णित करते इस नाटक का लेखन साल 2002 में लेखक राकेश भारती ने किया था। शहीद भवन में मंचित इस नाटक में कलाकारों ने दिगंबर वेश का लुक दिखाने के लिए कॉस्टयूम को इस तरह सेट किया ताकि वे दिगंबर मुनि ही दिखें। इसके लिए मुनि बने कलाकारों ने पिच्छिका व कमंडल भी धारण किया। नाटक की शुरुआत णमोकार मंत्र से होती है जिसका जाप आचार्य भद्रबाहु करते हैं। फिर जैन धर्म के आगम पर अपने शिष्यों को ज्ञान देते हैं। इस नाटक में आचार्य भद्रबाहु का अहम रोल असीम दुबे व आचार्य स्थूलिभद्र का रोल नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से दो साल पहले पासआउट कलाकार शांतनु शुक्ला ने निभाया।

स्थूलिभद्र चातुर्मास में देते हैं आत्मबल की परीक्षा

मगध के महामात्य शकडाल के पुत्र स्थूलिभद्र जिनधर्म का अनुपालन व तीर्थकरों से ,जैन धर्म की शिक्षा ग्रहण करने हेतु आचार्य भद्रबाहु की शरण में जाते हैं । स्थूलिभद्र नगरवधू कोशा की रंगशाला में चातुर्मास बिताने की अनुमति मांगते हैं। कोशा का रूप लावण्या व नृत्य स्थूलिभद्र के संयम को नही डिगा पाता और वे सफलतापूर्वक चातुर्मास व्यतीत कर लेते हैं । आचार्य भद्रबाहु स्थूलभद्र को संघ स्थिविर का महास्थविर बनाना चाहते हैं परंतु वरिष्ठ शिष्य वागदत्त इस पर आपत्ति लेते हैं और स्वंय कोशा की रंगशाला में जाकर चातुर्मास बिताने की चुनौती स्वीकार करते हैं। वागदत्त का संयम कोशा के रूप लावण्य से डोल जाता है । तब वागदत्त को भी अपनी गलती का एहसास होता है।

इस तरह शुरू हुई जैन श्वेतांबर परंपरा

उत्तर भारत में अकाल पड़ने से आचार्य भद्रबाहु दक्षिण भारत कुछ मुनियों को लेकर चले जाते हैं, लेकिन जब दो शिष्य वागदत्त व वादरायण आदि श्रमण जब दक्षिण से लौटते हैं तो वे सभी वे श्वेत पट्टिका धारण किए रहते हैं । इस पर श्रमणों के मध्य शास्त्रार्थ होता है और अंत में श्वेतपट्टिका धारी श्रमण श्वेतांबर जैन धर्म स्वीकार करते हैं।

डायरेक्टर कट

मेरे 15 साल के कॅरियर में यह सबसे मुश्किल नाटक रहा क्योंकि जैन धर्म के सिद्धांतों व शिक्षाओं को मुझे समझने का प्रयास करना पड़ा ताकि कोई गलती न हो। इस नाटक के लिए बड़ी मुश्किल आई क्योंकि मुनियों द्वारा ली जाने वाली पिच्छिका सिर्फ दीपावली के समय ही बनती हैं तो हमने दिगंबर जैन मंदिर से संपर्क करके तीन पिच्छिका व कमंडल की व्यवस्था थी। नाटक को तैयार करने में 8 माह का समय लगा क्योंकि दो मुख्य किरदार आचार्य स्थूलिभद्र व आचार्य भद्रबाहु का रोल करने वाले कलाकार चले गए। फिर दूसरे कलाकारों को लिया क्योंकि संस्कृतनिष्ठ हिंदी में संवाद अदायगी करना थी। इसके अलावा अन्य किरदारों के लिए भी लिखित नाटक के अलावा रिसर्च की। इस नाटक का यह पहला शो सफल रहा। -नितिन तेजराज, नाट्य निर्देशक

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