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आजादी के समय के 10 रोचक किस्से: कुछ मुसलमान चाहते थे कि ताजमहल तोड़कर पाकिस्तान भिजवा दिया जाए, हिन्दू साधुओं की हठ थी कि सिंधु नदी उन्हें मिलनी चाहिए

15 अगस्त 1947 को न सिर्फ हमारा देश आजाद हुआ बल्कि इसे बंटवारे का दंश भी झेलना पड़ा। कौम, जमीन, सड़क, रेल, नकदी, दरिया, नदी, डाक टिकट, सोने की ईंटें, किताबें और ऑफिस का सामान सहित सैकड़ों चीजों का विभाजन हुआ। 3 जून 1947 को 40 करोड़ लोगों की आजादी का दिन तय हुआ।

नई दिल्ली। 15 अगस्त 1947 को न सिर्फ हमारा देश आजाद हुआ बल्कि इसे बंटवारे का दंश भी झेलना पड़ा। कौम, जमीन, सड़क, रेल, नकदी, दरिया, नदी, डाक टिकट, सोने की ईंटें, किताबें और ऑफिस का सामान सहित सैकड़ों चीजों का विभाजन हुआ। 3 जून 1947 को 40 करोड़ लोगों की आजादी का दिन तय हुआ। विभाजन के लिए 73 दिन का समय था। इस कार्य के लिए दो अधिकारी नियुक्त किए गए- एच.एम.पटेल और चौधरी मुहम्मद अली। इनके अधीन बीसियों छोटो-बड़ी कमेटियों में काम कर रहे सैकड़ों अधिकारी इनके पास अपनी रिपोर्ट भेजते थे। फिर दोनों रिपोर्ट के आधार पर अपनी सिफारिशें तैयार कर विभाजन परिषद को भेज देते थे, जिसके अध्यक्ष वायसराय थे। आइए जानते हैं आजादी के समय से जुड़े 10 रोचक किस्से जिन्हें डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिन्स की किताब ‘आजादी आधी रात को’ से लिया गया है।

नाम का विभाजन
विभाजन की शुरुआत होती है नाम के बंटवारे से। शुरू में ही कांग्रेस ने सबसे बहुमूल्य संपत्ति अपने हिस्से में मांगी- इस देश का नाम ‘ भारत ’। इस सुझाव को अस्वीकार करते हुए कि वे अपने नये राज्य का नाम ‘हिन्दुस्तान’ रख लें। कांग्रेस ने इस बात का आग्रह किया कि पाकिस्तान चूंकि भारत से अलग होकर जा रहा है, इसलिए देश का नाम भारत और संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी संस्थाओं में भारत की अपनी हैसियत के हकदार वे ही हैं।

नकदी का विभाजन
बंटवारे के समय सबसे ज्यादा तू-तू, मैं-मैं पैसे के प्रश्न पर हुई। सरकारी बैंकों में जो नगद पैसा था, रिजर्व बैंक के तहखानों में जो सोने की ईंटें थी- उन सब का विभाजन। यह समस्या इतनी उलझी हुई थी कि अंतत: इसे हल करने के लिए एच.एम पटेल और चौधरी मुहम्मद अली को सरदार पटेल के घर के एक कमरे में बंद कर दिया गया। उनसे कहा गया कि जब तक वह किसी समझौते पर नहीं पहुंच जाते, तब तक उन्हें वहीं रहना पड़ेगा। बाजार में मोल-तोल करने वाले खोमचे वालों की तरह कई दिन तक सौदेबाजी करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बैंकों में मौजूद नकद और अंग्रेजों से मिलने वाले पौंड-पावने का 17.5 प्रतिशत पाकिस्तान को मिलेगा और भारत के ऋण का 17.5 प्रतिशत पाकिस्तान चुकाएगा।

चल संपत्ति का विभाजन
बंटवारे के लिए 73 दिन का समय था ऐसे में हिंदुस्तान के हर हिस्से में सरकारी कार्यालयों में मेज-कुर्सियां, झाडुएं और टाइपराइटर गिने जाने लगे। एच.एम.पटेल और चौधरी मुहम्मद अली की सिफारिस पर चल संपत्ति का 80 प्रतिशत हिस्सा भारत और 20 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान को देना तय हुआ। सामान के विभाजन पर बहस ही नहीं बल्कि लड़ाइयां भी हुईं। विभागों के बड़े अधिकारियों ने अपने अच्छे टाइपराइटर छुपा देने की या दूसरे पक्ष के हिस्से में आने वाली नयी मेज-कुर्सियों की जगह पुरानी टूटी हुई मेज-कुर्सियां लगा देने की पेशकश की।

कुछ कार्यालय तो बिल्कुल कबाड़ी बाजार बन गए। लाखों लोगों की किस्मत का फैसला करने वाले बड़े-बड़े सफेदपोश प्रतिष्ठित ज्वाइंट सेक्रेटरी एक कलमदान के बदले में पानी के जग की, हैट की खूंटी स्टैंड के बदले छतरी रखने की स्टैंड की, 125 पिन-कुशन के बदले एक कमोड की अदला-बदली कर रहे थे। सरकारी मेहमानखानों में खाने के बरतनों, छुरी और दीवार पर लगी हुई तस्वीरों के बंटवारे पर खूब जूतमपैजार तक हुई। लेकिन एक चीज पर कभी बहस नहीं होती थी, वह है शराब। जितनी शराब होती थी वह भारत को मिल जाती और उसके बदले में पाकिस्तान के हिसाब में कुछ रकम डाल दी जाती।

लाइब्रेरी की किताबों का विभाजन
सबसे अधिक झगड़ा तो भारत की लाइब्रेरियों की किताबों को लेकर हुआ। नौबत यहां तक आ गई कि इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका का एक खंड भारत को तो दूसरा पाकिस्तान तीसरा फिर भारत को दिया गया। शब्दकोश तक आधे-आधे फाड़कर बांट दिए गए। शुरू के आधे अक्षरों से आरंभ होने वाले शब्द भारत के हिस्से और बाद के पाकिस्तान के हिस्से में आए। जिस किताब की एक ही प्रति थी उसके बारे में लाइब्रेरियनों को यह फैसला करना पड़ा था कि किस राज्य को उस किताब के स्वभाविक रूप से ज्यादा दिलचस्पी होगी। कई बार तो इस दिलचस्पी को तय करने में हाथापाई तक हुई।

गुप्तचर विभाग नहीं बंटा
बंटवारे के समय कुछ ऐसी चीजे भी थीं जिन्हें नहीं बांटा जा सकता था। इन्हीं में से एक था भारत का गुप्तचर विभाग। गृह-विभाग ने बड़ी दूरदर्शिता के साथ कहा कि देश के विभाजन के बाद मौजूदा गुप्तचर विभाग की जिम्मेदारियों में कोई कमी नहीं होगी। विभाग के अफसर तो इस बात पर अड़े रहे कि वे एक फाइल, एक दवात तक पाकिस्तान में नहीं जाने देंगे।

पाकिस्तानी कामचलाऊ मुद्रा
बंटवारे के समय पूरे उप-महादीप में एक ही ऐसा प्रेस था जो कि दो चीजें छाप सकता था जिनसे किसी राष्ट्र को पहचाना जा सकता है- डाक टिकिट और नोट। भारत ने अपने भावी पड़ोसियों के साथ इस प्रेस में साझेदारी करने से इंकार का दिया। परिणाम यह हुआ कि हजारों मुसलमानों को हिंदुस्तानी नोटों पर पाकिस्तान की मुहर लगाकर नये राज्य के लिए कामचलाऊ मुद्रा बनानी पड़ी।

ताज महल को तोड़कर पाकिस्तान भेजने की मांग
नौकरशाहों के अलावा कुछ चरमपंथी विचारों के लोग भी अपने दावे पेश कर रहे थे। कुछ मुसलमान चाहते थे कि ताजमहल को तोड़कर पाकिस्तान भिजवा दिया जाए, क्योंकि इसे एक मुसलमान ने बनाया था। वहीं हिन्दू साधुओं की हठ थी कि सिंधू नदी जो मुस्लिम भारत के बीच से होकर बहती है, जिस तरह भी हो उन्हें मिलनी चाहिए क्योंकि लगभग 25 शताब्दी पहले पवित्र वेद उसी के पावन तट पर बैठकर लिखे गए थे।

सिक्का उछालकर हुआ घोड़ागाड़ियों का बंटवारा
उस समय वायसराय-भवन के अस्तबल में 12 घोड़ा गाड़ी थीं। यह हाथ से गढ़ी हुई सोने और चांदी की तरह-तरह की सजावटों से लैस, चमचमाते साज और लाल मखमली गद्दियों वाली थीं। इन गाड़ियों में साम्राज्यवादी सत्ता की वह सारी शान-शौकत और उसका यह सारा राजसी दंभ साकार हो उठा था, जिस पर ब्रिटिश राज की भारतीय प्रजा मंत्रमुग्ध हो उठती थी। भारत के हर वायसराय, हर शाही मेहमान और भारत से गुजरने वाले हर शाही मुसाफिर को इन्हीं गाड़ियों में बैठाकर राजधानी की सैर कराई जाती थी।

इनमें 6 की सजावट सुनहरी (गोल्डन) और 6 की रुपहली (सिल्वर) थी। गाड़ियों के सैट को तोड़कर बांटना दुखद होता। तय यह हुआ कि एक राज्य को सुनहरी और दूसरे को रुपहली गाड़ियां दे दी जाएं। माउंटबेटन के एडीसी लेफ्टिनेंट कमांडर पीटर होज ने सुझाव दिया कि सिक्का उछालकर सन-पुतली के आधार पर फैसला होगा कि किसी राज्य को कौन सी गाड़ियां मिलेंगी।

भारत की तरफ से कमांडर मेजर गोविंद सिंह और पाकिस्तान की तरफ से कमांडर मेजर याकूब खान वहां मौजूद थे। चांदी का एक सिक्का हवा में उछाला गया। गोविंद सिंह ने चिल्लाकर कहा ‘ पुतली ’ । सिक्का जब अस्तबल के फर्श पर गिरा तो मेजर गोविंद सिंह की खुशी का ठिकाना नहीं था। साम्राज्यवादी शासकों की सुनहरी गाड़ियां भारत को मिली थीं।

15 अगस्त का दिन अशुभ
माउंटबेटन ने जल्दबाजी में भारत की स्वतंत्रता के लिए 15 अगस्त की तारीख चुन ली थी। वही सबसे टेढ़ी खीर बन गई। कई ज्योतिषियों ने मिलकर अंत में भारतीय राजनीतिज्ञों को सलाह दी कि 15 अगस्त का दिन तो राष्ट्र के आधुनिक इतिहास को आरंभ करने के लिए बेहद अशुभ है। इसकी तुलना में 14 अगस्त को ग्रहों की स्थिति काफी अच्छी है। भारत के राजनीतिज्ञों ने ग्रहों की दशा को टालने के लिए जो सुझाव रखा उसे वायसराय ने तुरंत मानकर संतोष की सांस ली। उन्होंने यह निर्णय लिया कि भारत और पाकिस्तान 14 अगस्त 1947 को ठीक आधी रात को स्वतंत्र राष्ट्र बन जाएंगे।

चरखे की जगह अशोक चक्र को तिरंगे में मिला स्थान
खादी का वह तिरंगा झंडा जो शीघ्र ही भारत के आकाश पर अंग्रेजों के झंडे यूनियन जैक का स्थान लेने वाला था, कई सालों से स्वतंत्रता की प्यासी जनता की बैठकों, जुलूसों और प्रदर्शनों में लहराता आया था। संघर्षशील कांग्रेस के लिए इस झंडे को गांधी जी ने स्वयं चुना था। उसकी केसरिया, सफेद और हरे रंग की पट्टियों के बीचोंबीच उन्होंने चरखा रखा था, जो एक तरह से उनकी निजी मुहर थी।

यह मामूली सा अस्त्र उन्होंने ही भारतीय जनता को उसकी अहिंसात्मक मुक्ति के लिए दिया था। अब जबकि स्वतंत्रता मिलने वाली थी, कांग्रेस में इस तरह की सुगबुगाहट होने लगी कि राष्ट्र के भावी झंडे में ‘ गांधी जी के खिलौने ’ को केंद्रीय अधिकार पाने का क्या अधिकार ? पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता अधिकारी अधिक संख्या में यह महसूस कर रहे थे कि चरखा अतीत का प्रतीक है। वह औरतों के मतलब की चीज है और अर्न्तमुखी प्राचीन भारत का चिन्ह है।

उनके आग्रह पर राष्ट्रीय ध्वज के सबसे सम्मानित स्थान एक दूसरे चक्र को दिया गया जो सम्राट अशोक के विजेता सैनिकों का युद्ध-चिन्ह था। शक्ति और साहस के प्रतीक दो शेरों के बीच शक्ति तथा सत्ता का प्रतीक अशोक का धर्मचक्र नये भारत का प्रतीक बन गया। गांधी जी को जब अपने अनुयायियों के इस निर्णय का पता चला तो वह बहुत उदास हो गए। उन्होंने कहा कि यह डिजाइन कितना ही कलात्मक क्यों न हो, मैं कभी ऐसे झंडे को सलामी नहीं दूंगा जिसके पीछे इस प्रकार का संदेश हो।

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