नई दिल्ली। हर साल 23 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस (International Day of Sign Languages) के रूप में मनाया जाता है। जिसका मकसद न सुन पाने वाले लोगों को शरीर के हाव-भाव से बातचीत करना सिखाना है। ऐसे व्यक्तियों को जागरूक बनाने के लिए यह दिन सेलिब्रेट किया जाता है। दुनिया भर में ऐसे कई लोग है, जो बोल या सुन नहीं सकते है। साइन लैंग्वेज की मदद से उनसे बातचीत करना या उन्हें अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने में आसानी होती है। सांकेतिक भाषा महज परेशानी व्यक्त करने का ही जरिया नहीं बल्कि एक्साइटमेंट, दया, खुशी,गुस्सा भी इससे बयां किया जा सकता है।
इतिहास
संयुक्त राष्ट्र ने 23 सितंबर 2018 को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी। 23 सिंतबर 1951 को विश्व मूक फेडरेशन की स्थापना हुई थी। इसी उपलक्ष्य में हर साल अंतर्राष्ट्रीय साइन लैंग्वेज दिवस मनाया जाता है।

300 तरह की साइन लैग्वेंज
वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ डेफ के मुताबिक, दुनिया में करीब 70 मिलियन से ज्यादा बधिर लोग हैं। 80 प्रतिशत से अधिक बधिर लोग विकासशील देशों में रहते हैं और लगभग 300 तरह की साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल किया जाता है।
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में लगभग 50 लाख से भी ज्यादा लोग बधिर (जो बोल या सुन नही सकते) है। ऐसे लोगों के लिए साइन लैग्वेंज ही बातचीत का बेस्ट जरिया होता है।
सांकेतिक भाषा सीखने के फायदे
सांकेतिक भाषा एक प्राकृतिक भाषा है जो सिर्फ शरीर के हाव-भाव पर ही आधारित है। इसे एक दृ्श्य भाषा (Visual Language) भी कहा जाता है जो कि सिर्फ दिखाई देती है क्योंकि इस भाषा को लिखा नहीं जा सकता। साइन लैंग्वेज को आप शौक के लिए सीख सकते हैं। साथ ही इस भाषा को सीखने के बाद आपके पास करियर में एक विकल्प और जुड़ जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस की महत्व
सांकेतिक भाषा (Sign Languages) का प्रारम्भिक प्रमाण 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्लेटो की क्रेटीलस में मिलता है, जहां सुकरात कहते हैं कि “अगर हमारे पास आवाज या जुबान नहीं होती है और हम एक-दूसरे से विचार व्यक्त करना चाहते हैं तो क्या हम अपने हाथों, सिर और शरीर के अन्य अंगों द्वारा संकेत करने की कोशिश करते हैं, जैसा कि इस समय मूक लोग करते है ”। 1620 में जुआन पाब्लो बोनेट ने मेड्रिड में मूक-बधिर लोगो के संवाद को समर्पित पहली पुस्तक प्रकाशित की। इसके बाद 1680 में जोर्ज डालगार्नो ने भी एक ऐसी ही पुस्तक प्रकाशित की। 1755 में अब्बे डी लिपि ने Paris में बधिर बच्चों के लिए प्रथम विद्यालय की स्थापना की। 19वी सदी में अमेरिका तथा कुछ अन्य देशो में भी अनेक ऐसे स्कूलों की स्थापना होने लगी थी।