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18 मई अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर विशेष: देशज ज्ञान के लिए खुली पुस्तक जैसा है ‘मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय’

संग्रहालय प्राय:हमारे लिए गौरव का अनुभव कराने के साथ अपने पूर्वजों के कौशल और उनकी सामर्थ्य को अलग-अलग तरीके से प्रदर्शित करते हैं। सभी संग्रहालयों का लक्ष्य हमें स्मृति में ले जाना है।

भोपाल. मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग ने प्रदेश की जनजातीय और लोक समुदायों की जीवन पद्धति तथा उससे उद्भूत संस्कृति और कला परंपराओं के अध्ययन, संरक्षण और विकास हेतु कई आयामों में काम किए हैं। विकास की विश्व दृष्टि से किसी भी समुदाय को वंचित रखना लोकतांत्रिक आचरण नहीं होगा। लिहाजा आजादी के बाद से ही जीवन के सभी पहलुओं पर और समाज के हर तबके तक आधुनिक विकास दृष्टियों मसलन-शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, खेती-किसानी के आधुनिक उपकरणों और तकनीक आदि से जीवन के रोजमर्रा के आचरण में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। इन दृष्टियों का सबसे अधिक प्रभाव पारंपरिक संस्कृति और उसकी कला परंपरा पर बहुत गहरे से पड़ा है।

‘मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्’ का गठन

वर्ष, 1982 में इसे लक्षित करते हुए पारंपरिक कला, संस्कृति और मौखिक साहित्य के क्षेत्र में मध्य प्रदेश शासन, संस्कृति विभाग द्वारा ‘मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्’ स्वायत संस्था गठित की गई है, जो आज भी अपने स्थापना काल से मौखिक साहित्य परंपराओं के संकलन और प्रकाशन, कला एवं जीवन के बहुपक्षों पर शोध, सर्वेक्षण, दस्तावेजीकरण और सांस्कृतिक उत्सवों के रूप में बहुआयामी गतिविधि आहूत कर रही है।

अकादमी ने अपने कार्य विस्तार के तहत सबसे महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय-भोपाल की स्थापना की है। संग्रहालय की स्थापना में जिन तत्त्वों का संग्रह और प्रदर्शन किया, वे सभी मूलत: देशज ज्ञान के ही उत्पाद हैं। जो समुदाय जिस भौगौलिक क्षेत्र में निवासरत है, वहां की मिट्टी और उसमें उत्पन्न होने वाले खाद्यान्न उस क्षेत्र के मनुष्य की प्रवृत्ति, संस्कृति और उसकी कला के जन्म के मूल में हैं।

आदिवासी जीवनशैली का अनूठा संग्रहालय है भोपाल का ट्राइबल म्यूजियम

संग्रहालय ने कला तत्त्वों विशेषकर अनुष्ठानिक एवं अलंकारिक रूप से निर्मित होने वाली अलग-अलग माध्यमों की शिल्प रचना, नृत्य-नाट्य, गायन-वादन आदि पक्षों के प्रदर्शन और साहित्य रूपों के संकलन, अनुवाद और पुस्तकों के प्रकाशन किए हैं। कला एवं साहित्य के ये सभी रूप बहुत सारे संज्ञान को अपने भीतर समेटे हुए हैं। इन्हें चिह्नांकित कर पूर्वजों की देश ज्ञान सामर्थ्य को यहां उजागर किया गया है। जनजातियों का कोई भी अलंकरण आकारों की पुनरूक्ति में है। वे एक ही कलाभिप्राय को एक रचना में अनेक बार उपयोग करते हैं। यह निष्प्रयोजन नहीं हो सकता है। ऐसा नहीं है कि उन्हें अन्य अभिप्राय निर्मित करना नहीं आते, परंतु वे एक ही अभिप्राय को सृजित करते हैं। बार-बार इस दोहराव की प्रवृत्ति से मन की चंचल वृत्तियां गतिहीन होती है।

मन के अगति में होने से बहुत नवाचार की गुंजाइश जीवन में नहीं रह जाती। हर क्षण नए की मांग का चरित अथवा ऐसी संस्कृतियां जीवन की आवश्यकता में नहीं होंगी। दोहराव की संस्कृति का चरित संग्रह और दूसरों के अधिकार को बलात् हस्तगत करने वाला नहीं हो सकता। ऐसा व्यवहार नृत्य, गायन और वादन में भी सहजता से लक्षित किया जा सकता है। यह जीवन पद्धति बहुत सुनियोजित है। देश की सभी लौकिक संस्कृतियों में इसके तमाम उदाहरण मौजूद हैं।

आदिवासियों के घर और प्रकृति

गहन जंगल और मैदानी क्षेत्र में निवास करने वाले समुदायों के आवास, बीजों के संग्रह के उपकरण, आंतरिक साज-सज्जा, सहचर पशुओं की व्यवस्था आदि जीवन आचरण और उसकी विविधताओं में भी गहन अनुभव दृष्टि को परखा जा सकता है। प्राय:घने जंगलों में निवास करने वाली सभ्यताओं के आवास आकार में बहुत छोटे होते हैं। अधिक आकार में बड़ा आवास प्रकृति को नष्ट किए बगैर संभव नहीं है। प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना छोटे आकार के आवास ही संभव हैं। प्रकृति का विजेता होने के बजाय साथ जीने की यह प्रवृत्ति, खाद्यान्न और बीजों का भंडारण उतना ही चाहिए, जितना की आने वाली फसल तक की जरूरतों को पूरा कर सके।

इन छोटे आवासों में रस निष्पत्ति के मूल उपकरणों में किसी न किसी वाद्य के लिए जगह, शिकार हेतु फंदे या ऐसे ही अन्य औजार और सबसे प्राथमिक ‘आग’ के लिए जगह की व्यवस्था भर होना है। इन सबके लिए जगहें लगभग सुनिश्चित हैं। वास्तुविज्ञान के पूर्णत: नियमानुसार, यह सब उन्हें कैसे पता रहा होगा, यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।

प्राचीन भारतीय सभ्यताएं और प्राकृतिक संसाधन

प्राचीन सभी सभ्यताओं ने अपनी जीवनचर्या में स्थानीय उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से जीवन की जरूरतों को आकल्पित किया था। जाहिर है कि ऐसे मनुष्य को होने वाली दैहिक समस्याओं का समाधान भी उसी प्रकृति में मौजूद था, जिसकी पहचान उन्हें भली-भांति रही है। वे प्राकृतिक औषाधियां आज भी उपलब्ध हैं, पर वे अपना असर नहीं करतीं। उसका मूल कारण है कि हमारी जीवन शैली प्राकृतिक नहीं रही। अब उस जीवन में बहुत सारीं तकनीक और रासायनिक तत्त्व शामिल हो गए हैं। मानव ने अपने को अप्राकृतिक बना लिया है और शुद्ध प्राकृतिक पदार्थों से दैहिक रूग्णता के समाधान चाहता है और यदि ऐसा नहीं होता, तो प्राकृतिक तत्त्वों को संदिग्ध निरूपित किया जाता है, स्वयं के आचरण को तो कम से कम बिलकुल नहीं। वे औषधियां उनके लिए आज भी काम की हैं, जिनका जीवन प्रकृतिस्थ है।

मध्य प्रदेश की कला संस्कृति और कला परंपराएं

जीवन को परिपूर्णता में देखने और जीने की जिन देशज पद्धतियों ने सदियों तक मनुष्य को दृष्टि दी, उन्हीं से हम सभी किसी न किसी रूप में संस्कारित हों, इसका प्रयत्न इस संग्रहालय में किया गया है। धरती की सभी मानवीय सभ्यताएं न्यूनता में जीवनयापन करने की दृष्टि देती हैं। जाहिर है आवश्यकता के संसार में में जीने वाले लोग विजेता नहीं हो सकते। वे कभी दूसरे के अधिकार का हनन नहीं कर सकते है।

मध्यप्रदेश की संस्कृति और कला परंपराओं का निर्माण भी ऐसे ही मानव समुदाय से हुआ है। जीवन का सभी पक्ष प्रेरणास्पद है। कोई भी मान्यता निष्प्रयोजन नहीं है, उसके पीछे एक न एक कल्याण भाव है। भोपाल में स्थित मध्य प्रदेश का जनजातीय संग्रहालय तमाम प्रादर्शों से इन्हीं तथ्यों को अभिव्यक्त करता है।


अशोक मिश्र
क्यूरेटर, मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय

जनजातीय संग्रहालय और अन्य इसी तरह की एक्सक्लूसिव डॉक्यूमेंट्री peoplesupdate.com के यूट्यूब चैनल पर देख सकते हैं

अमिताभ बुधौलिया

दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, नवभारत और एशियानेट आदि सहित कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में 25 साल से अधिक पत्रकारिता का अनुभव. चार उपन्यास के अलावा एक कविता-ग़ज़ल संग्रह तथा एक व्यंग्य काव्य संग्रह प्रकाशित. फिल्म लेखन, वृत्तचित्र, विज्ञापन और गीत आदि में भी सक्रिय.

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