
प्रीति जैन- हैंडलूम प्रोडक्ट्स व वीवर्स को प्रमोट करने के लिए शहर की महिलाएं कई तरह के प्रयास कर रही हैं और उनकी यह कोशिशें रंग भी ला रही हैं। लगातार पिछले कुछ सालों में हैंडलूम साड़ियों को प्रमोट करके वीवर्स के मार्केट का विस्तार करवाकर लुप्त होने वाली बुनाइयों को सहेजने का काम इन्होंने किया है। अब जल्दी ही भोपाल से देश में बुनी जाने वाली साड़ियों आधारित पहली कॉफी टेबल बुक लॉन्च होगी जिसमें भारत की दुर्लभ वीविंग, पौराणिक आख्यानों से लेकर भारतीय प्रतिमाओं में साड़ी ड्रैपिंग जैसी रोचक जानकारियां मिलेगी। वहीं, भोपाल की उमंग श्रीधर मुरैना में एनएसडीसी से सर्टिफाइड हैंडलूम ट्रेनिंग सेंटर हैंडलूम डे के मौके पर शुरू करने जा रही हैं। पढ़िए हैंडलूम को प्रमोट करने वाली महिलाओं के प्रयासों की कहानी।
टाइम्स स्क्वायर पर पांच दिन प्रमोट की साड़ी
शाटिका जैसा की नाम से स्पष्ट पता चलता है साड़ी। हमने अपने हैंडलूम साड़ी क्लब का नाम शाटिका ग्रंथ रखा और महिलाओं को हैंडलूम साड़ी पहनने के लिए मोटिवेट किया। हम अपने इस क्लब की तीसरी सालगिरह मना रहे हैं, जिसमें हमारे साथ सोशल मीडिया के जरिए 2000 महिलाएं व भोपाल की लगभग 200 महिलाएं जुड़ी हैं। ग्रुप की लेडीज भारत में जहां भी जाती हैं, उस जगह की खास वीविंग में की गई साड़ी जरूर लेकर आती हैं ताकि यह यदि लुप्त भी हो जाएं तो हमारे पास संरक्षित रहें। मैंने हाल में न्यूयॉर्क में कर्नाटक की वीविंग इल्कल साड़ी को टाइम्स स्कवायर पर प्रमोट किया, जिनके बारे में विदेशी नागरिकों ने जानकारी और तस्वीरें ली। जल्दी भारत की साड़ियों पर कॉफी टेबल बुक भी लान्च करेंगे। -शालिनी गुप्ता, फाउंडर, शाटिका ग्रंथ
नाबार्ड के साथ शुरू किया ट्रेनिंग सेंटर
नाबार्ड के साथ मिलकर मुरैना के जौरा तहसील में हैंडलूम ट्रेनिंग सेंटर शुरू किया है जिसका उद्धाटन 7 अगस्त को किया जा रहा है। महात्मा गांधी सेवाश्रम, जौरा में लगभग 200 महिलाएं कताई व कारपेट बुनाई का काम कर रही थीं, हम इन्हें एडवांस लूम पर ट्रेनिंग देकर उनकी स्किल्स अपग्रेड करेंगे ताकि वे फाइनल प्रोडक्ट भी खुद ही बनाए, जैसे साड़ियां, बैडशीट व हैंडलूम फेब्रिक। हमने डॉबी टूल के साथ पैडल लूम लगाएं हैं ताकि काम फिनिशिंग व तेजी के साथ हो सके। – उमंग श्रीधर, हैंडलूम प्रमोटर व डिजाइनर
6 साल से लुप्त होती वीविंग पर कर रही हूं रिसर्च
मेरा पास गुजरात की माता नी पछेड़ी साड़ी है, जो कि वाघरी समुदाय की 300 वर्ष पुरानी छपाई कला है। बांस के पतले ब्रश से इस पर चित्रकारी की जाती है। नेचुरल रंगों के इस्तेमाल की वजह से यह बहुत रंगीन नजर नहीं आती। रंगों को पक्का करने के लिए साबरमती नदी में इसे धोया जाता था, लेकिन अब इसकी छपाई लगभग बंद हो गई है, और अपनी कॉफी टेबल बुक में मैं इस तरह की कई साड़ियों का इतिहास दे रही हूं जो कि लुप्त होने वाली हैं। लोगों को जब इसकी जानकारी मिलेगी तो बुनकरों व छपाई कलाकारों को संभवत: इन्हें पुनर्जीवित करने का मौका मिले। मैं पिछले 6 साल से साड़ियों पर रिसर्च करके उसका डॉक्यूमेंटेशन कर रही हूं और संभवत: इस साल यह बुक रिलीज हो जाए। लगभग 150 से ज्यादा तरह की वीविंग व छपाई कला को शामिल करने का प्रयास है। -डॉ. अन्का शर्मा, हैंडलूम प्रमोटर व राइटर