मनीष दीक्षित। भले ही केंद्र में तीसरी बार मोदी सरकार बनने जा रही है, मगर इस बार वह सहयोगियों पर निर्भर हो गई है। 2014 के बाद यह पहली बार है जब भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने से चूक गई। कई केंद्रीय मंत्रियों का चुनाव हारना और स्वयं प्रधानमंत्री की लीड भी कम होना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अब समय करवट बदल रहा है। हालांकि, इस सबके बावजूद देश में तीसरी बार सरकार बनाने का करिश्मा करने वाले पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री होने की उपलब्धि भी मोदी अपने नाम करने के करीब हैं।
परिणामों ने एक बात तो साफ कर दी है कि अब भाजपा को अधिक लचीला और विनम्र होने की जरूरत है, क्योंकि धर्म और मुफ्त राशन के दम पर ज्यादा लंबा नहीं खेला जा सकता। नई सरकार को जनता पर अपने फैसले थोपने के बजाय, ऐसे काम करने होंगे जिससे आमजन में यह संदेश जाए कि वाकई सरकार उनकी चिंता कर रही है।
आज के नतीजे इस बात के भी संकेत हैं कि जनता अब मोहभंग के दौर से गुजर रही है। तिलिस्म अब टूटता दिख रहा है। उनकी बातें उस जनमानस को आकर्षित नहीं कर पा रही हैं, जिन्हें अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने में भारी मशक्कत करनी पड़ रही है।
18वीं लोकसभा के चुनावी परिणामों ने न केवल अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस को नई ऊर्जा दी है, बल्कि इन नतीजों ने क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं का कद बढ़ा दिया है। राहुल गांधी के भविष्य के साथ-साथ, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, एमके स्टालिन और रेवंत रेड्डी की क्षेत्रीय विचारधाराओं के राजनीतिक स्थायित्व के लिहाज से यह चुनाव काफी अहम था। नतीजों ने तय कर दिया कि भाजपा की ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत का सपना, सपना ही रह गया। वहीं क्षेत्रीय दलों खासकर एक परिवार वालों का वजूद फिलहाल तो मजबूत हो गया।
फिलहाल यह कह सकते हैं कि आज का फैसला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के हक में ही आया है। बहुमत एनडीए के साथ भले है, मगर विपक्ष को भी मजबूती मिली है। यह नतीजे ऐसे हैं जो चाह को भी जिलाये रखे और चिंता को भी!