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केमिकल से दूर टेसू के फूलों से चढ़ता है रंगोत्सव का खुमार

परंपरा : उमरिया, दमोह, डिंडौरी व मंडला में जनजातियों के होली उत्सव में नहीं चलते रासायनिक रंग

संजय दुबे, जबलपुर। आधुनिकता के दौर में भी मप्र की आदिवासी जनजातियां अपनी परंपराओं का पालन कर रही हैं। यही कारण है कि आज भी गोंड़, बैगा, कोल आदि जनजातियां त्योहारों को अपने ही अंदाज में मनाती हैं। उमरिया, डिंडौरी, मंडला और दमोह में आज भी केमिकल नहीं टेसू के फूलों के रंगों से ही होली खेली जाती है।

उमरिया जिले में गोंड़ सहित बैगा और कोल जातियां भी निवास करती हैं। तीनों जनजातियां पारंपरिक तरीके से होली मनाती हैं। निगहरी निवासी बाला सिंह गोंड़ ने बताया कि कि जंगल से पलाश के फूलों को इकट्ठा कर पानी में उबालते हैं और फिर उसे छान कर प्राकृतिक रंग बनाकर होली खेलते हैं। जो त्वचा को भी नुकसान नहीं पहुंचाता है और चमक के साथ रंग चढ़ता भी खूब है।

नई फसलों को भून कर माला बच्चों को पहनाते हैं

दमोह में परंपरा का पालन करते हुए कई गांवों का गोंड समाज होलिका दहन पर नई फसलों को भूनकर दानों की माला बच्चों के गले में पहनाता है। इसके पीछे उनकी मान्यता है कि जैसे भगवान विष्णु ने आग से भक्त प्रहलाद को बचाया था, उसी तरह उनके बच्चों की भी बलाओं से रक्षा होगी। समदई निवासी मोहन सिंह गोंड़ बताते हैं बरसों पुरानी परंपरा के अनुसार दूसरे दिन राख का टीका लगाते हैं और इसके घोल को एक दूसरे पर छिड़कते हैं।

होली की आग से कंडे जलाकर बाटी बनाते हैं

दमोह के ही पठारी ग्राम के देवेंद्र बताते हैं कि होलिका की आग लेकर घर जाते हैं और नई आग जलाते हैं। कंडे जलाकर बांटियां बनाते है और बच्चों को खिलाते हैं। डिंडौरी और मंडला में आदिवासी समाज में होली के अवसर पर आज भी बलि देने की परंपरा है। डिंडौरी के समनापुर क्षेत्र के टिकरिया गांव में बैगा परिवार अपनी देवी से और देवालयों में फसलों के लिए अच्छी वर्षा की कामना करते हुए मुर्गे की बलि देता है। साथ ही महुआ रस भेंट कर त्योहार की शुरूआत करते हैं।

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