जबलपुरमध्य प्रदेश

Swami Saroopanand Samadhi : शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद को दी गई समाधि, धार्मिक रीति-रिवाज से दी अंतिम विदाई; 2 संत बने उत्तराधिकारी

ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ और शारदा पीठ द्वारका के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को सोमवार को वैदिक मंत्रोच्चार और धार्मिक रीति-रिवाज के बीच समाधि दी गई। इससे पहले भजन कीर्तन के साथ उन्हें पालकी में बैठाकर समाधि स्थल तक लाया गया। जहां सैकड़ों की संख्या में मौजूद साधु-संतों, भक्तों ने नम आंखों से अपने गुरुदेव को अंतिम विदाई दी। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अंतिम दर्शन कर श्रद्धांजलि दी। बता दें कि शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का नरसिंहपुर में 99 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने रविवार दोपहर करीब 3:30 बजे अंतिम सांस ली।

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी को आश्रम से गंगा कुंड तक पालकी से ले जाया गया।

2 संत बने शंकराचार्य स्वरूपानंद के उत्तराधिकारी

इससे पहले शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के उत्तराधिकारियों के नाम सोमवार दोपहर घोषित कर दिए गए। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ और स्वामी सदानंद को द्वारका शारदा पीठ का प्रमुख घोषित किया गया है। बता दें कि उनके नामों की घोषणा शंकराचार्य जी की पार्थिव देह के सामने की गई। ज्योतिष पीठ का प्रभार अभी अविमुक्तेश्वरानंद महाराज के पास है। जबकि, द्वारका पीठ का प्रभार दंडी स्वामी सदानंद सरस्वती को मिला हुआ है।

अंतिम दर्शन के लिए सैकड़ों की संख्या में भक्त आश्रम पहुंचे।

इस प्रकार दी जाती है भू-समाधि

साधु-संतों को शैव, नाथ, दशनामी, अघोर और शाक्त परम्परा के मुताबिक केवल भू-समाधि दी जाती है। इस समाधि में साधु संतों को बैठी हुई मुद्रा में, विशेष तौर पर पद्मासन या सिद्धि आसन में जमीन के अंदर समाधि दी जाती है।

क्यों दी जाती है भू-समाधि ?

माना जाता है कि साधु-संतों की आत्माएं पवित्र होती हैं। ऐसी आत्माएं मौत के बाद भी परोपकार करती हैं। इसी वजह से उन्हें सनातन धर्म में आम व्यक्ति के अंतिम संस्कार की तरह अग्नि नहीं दी जाती।

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9 साल की उम्र में छोड़ दिया था घर

स्वामी शंकराचार्य श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्य प्रदेश सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता ने बचपन में इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। महज 9 साल की उम्र में स्वामी स्वरूपानंद घर छोड़ दिया और धर्म की यात्रा शुरू कर दी थी। देश के तमाम हिंदू तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने के बाद वह काशी (वाराणसी) पहुंचे। यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज से वेद-वेदांग, शास्त्रों और धर्म की शिक्षा ग्रहण की।

19 साल की उम्र में बने थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी

शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम धनपति उपाध्याय और मां का नाम गिरिजा देवी था। शंकराचार्य ने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान हुआ तो स्वामी स्वरूपानंद भी आंदोलन में कूद पड़े। 19 साल की आयु में वह क्रांतिकारी साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्हें वाराणसी में 9 महीने और मध्यप्रदेश की जेलों में 6 महीने कैद रखा गया।

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1950 में दंडी संन्यासी बने, 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली

1950 में स्वामी स्वरूपानंद दंडी संन्यासी बनाए गए थे। शास्त्रों के अनुसार दंडी संन्यासी केवल ब्राह्मण ही बन सकते हैं। साथ ही दंडी संन्यासी को गृहस्थ जीवन से दूर रहना पड़ता है। इस दौरान उन्होंने ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-संन्यास की दीक्षा ली थी। इसके बाद से ही उनकी पहचान स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के रूप में हुई। 1981 में स्वामी स्वरूपानंद को शंकराचार्य की उपाधि मिली।

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