ताजा खबरभोपालमध्य प्रदेश

भाजपा ने बड़े चुनाव के फेर में भुला दिए सहकारिता और छात्र संघ जैसे इलेक्शन

मप्र में 37 साल से छात्र संघ व11 साल से टल रहे सहकारी चुनाव

राजीव सोनी/भोपाल। मध्यप्रदेश में सत्ताधारी दल भाजपा ने लोकसभा-विधानसभा जैसे बड़े और निर्णायक चुनावों के चलते छात्र संघ, मंडी और सहकारिता जैसे महत्वपूर्ण इलेक्शन भुला दिए। प्रदेश में 1986-87 के बाद छात्र संघ चुनाव ही नहीं हुए जबकि मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने बतौर उच्च शिक्षा मंत्री रहते हुए प्रस्ताव तैयार कराया था लेकिन उस पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया। यही स्थिति ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली सहकारिता की भी है। राज्य में 2013 से सहकारी समितियों के चुनाव टलते जा रहे हैं। प्रदेश के 38 जिला सहकारी केंद्रीय बैंकों में एक-दो अपवाद छोड़ सभी जगह कलेक्टर ही प्रशासक हैं। भाजपा के वरिष्ठ पदाधिकारियों का भी मानना है कि छात्र संघ चुनाव राजनीति की नर्सरी है। सियासत की नई पौध इन्हीं चुनावों से निकल कर आती है, प्रदेश की सत्ता-संगठन में ज्यादातर नेता छात्र संघ की उपज ही हैं।

डिफाल्टर हैं किसान

प्रदेश में लाखों किसानों का सहकारी समितियों का सीधा संबंध है। 2013 के बाद से समितियों के चुनाव ही नहीं हो पा रहे। हर 5 साल में चुनाव होना चाहिए लेकिन 11 साल से सहकारी समितियां प्रशासक के भरोसे चल रही हैं। हाल ही में सहकारी संस्थाओं का चुनाव कार्यक्रम जारी हुआ है। सहकारी नेताओं को अब भी चुनाव को लेकर आशंका बनी हुई है क्योंकि प्रदेश में मौजूदा स्थिति में बड़ी संख्या में किसान डिफाल्टर श्रेणी में हैं। इससे वे चुनाव में भाग नहीं ले पाएंगे। यही स्थिति मप्र कृषि उपज मंडियों के संचालक मंडल के चुनाव की है। 2017 से मंडियों के चुनाव भी लंबित हैं।

प्रदेश में 4534 समितियां

प्रदेश में अभी 4 हजार 534 प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियां हैं। इनमें वर्ष 2013 में चुनाव हुए थे, जिनके संचालक मंडल का कार्यकाल वर्ष 2018 में समाप्त हो चुका है।

चुनाव की बाट जोह रहीं संस्थाएं

दुग्ध संघ, लघु वनोपज संघ, मत्स्य, मार्कफेड, बीज निगम, सिंचाई अध्यक्ष और उपभोक्ता संघ।

जल्दी शुरू होगी प्रक्रिया

यह सही है कि सहकारी समितियों और छात्र संघ के चुनाव में विलंब हुआ है। चुनाव अब ज्यादा दिन नहीं टलेंगे। जल्दी ही चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जा रही है। – वीडी शर्मा ,अध्यक्ष, मप्र भाजपा

ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़

सहकारिता ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बैकबोन है। वित्तीय एजेंसी के कारण किसानों को खाद-बीज का महत्वपूर्ण काम पड़ता है। समितियों के चुनाव 11 साल से नहीं हुए। जनप्रतिनिधि रहने से जवाबदारी तय होती है और किसानों के हित में बेहतर काम होता है। -कैलाश सोनी ,पूर्व सांसद एवं वरिष्ठ सहकारी नेता, मप्र

किसानों में असंतोष

सहकारिता और मंडी समितियों के चुनाव कई कारणों से लगातार टल रहे है। इससे छोटे कार्यकर्ता और किसानों में असंतोष भी है। अभी चुनाव का कार्यक्रम जारी हुआ है लेकिन अक्टूबर-नवंबर के पहले चुनाव संभव नहीं लगते। कमल नाथ सरकार के दौरान हुई ब्याज माफी की घोषणा के बाद से बड़ी संख्या में कसान डिफाल्टर हो चुके हैं। मदन लाल राठौर, अध्यक्ष, मप्र सहकारिता प्रकोष्ठ

संबंधित खबरें...

Back to top button