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कौन हैं बानू मुश्ताक? जिन्हें शॉर्ट स्टोरीज ‘हार्ट लैंप’ के लिए मिला अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार

कर्नाटक की 77 वर्षीय लेखिका बानू मुश्ताक ने साहित्य के क्षेत्र में एक नया इतिहास रच दिया है। वह अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली पहली कन्नड़ लेखिका बन गई हैं। यह प्रतिष्ठित पुरस्कार उन्हें उनके शॉर्ट स्टोरीज संग्रह ‘हार्ट लैंप’ के लिए दिया गया है। इस किताब का अनुवाद अंग्रेजी में दीपा भाष्थी ने किया है  और यह सम्मान उन्होंने उनके साथ साझा किया है।

हाशिये पर रह रहे लोगों की लिखती हैं कहानियां

बानू मुश्ताक की लेखनी उन विषयों को केंद्र में रखती है जिन पर अक्सर बात नहीं होती, जैसे- महिलाओं का जीवन, जातिगत और वर्गीय उत्पीड़न और सत्ता की संरचनाएं। उनकी कहानियों में पितृसत्ता, धार्मिक भेदभाव और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध मुखर प्रतिरोध दिखता है। बुकर सम्मान मिलने पर उन्होंने कहा, “ऐसा लग रहा है जैसे हजारों जुगनू एक ही आसमान को रोशन कर रहे हों, संक्षिप्त, शानदार और पूरी तरह से सामूहिक।”

दूसरी बार भारतीय कृति को मिला यह सम्मान

यह दूसरी बार है जब किसी भारतीय कृति को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। इससे पहले 2022 में गीतांजलि श्री और अनुवादक डेजी रॉकवेल को ‘रेत समाधि’ के लिए यह सम्मान मिला था। 25 फरवरी  को जब ‘हार्ट लैंप’ को इस पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया, तब बानू मुश्ताक पहली कन्नड़ लेखिका बनी थीं, जिन्हें यह मान्यता मिली।

मिशनरी स्कूल में शुरू हुआ बदलाव

बानू का सफर बेहद प्रेरणादायक है। 1950 के दशक में आठ साल की उम्र में उन्हें कर्नाटक के शिवमोगा में एक ईसाई मिशनरी स्कूल में दाखिला मिला, वह भी मुश्किल से। स्कूल प्रबंधन को चिंता थी कि वह कन्नड़ नहीं सीख पाएंगी और उर्दू स्कूल ज्यादा सही रहेगा। लेकिन पिता के रिक्वेस्ट के बाद उन्हें छह महीने की शर्त पर प्रवेश मिला। आश्चर्यजनक रूप से, बानू ने कुछ ही दिनों में कन्नड़ पढ़ना-लिखना सीख लिया।

मिडिल स्कूल से शुरू हुई लेखन यात्रा

बानू मुश्ताक ने मिडिल स्कूल में अपनी पहली लघुकथा लिखी थी। हालांकि उनकी पहली प्रकाशित कहानी 26 वर्ष की उम्र में लोकप्रिय कन्नड़ पत्रिका ‘प्रजामाता’ में छपी। इसके बाद उनके लेखन को व्यापक पहचान मिली। एक बड़े मुस्लिम परिवार में जन्मी बानू को उनके पिता का हमेशा साथ मिला, खासकर तब जब उन्होंने स्कूल की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई।

बानू मुश्ताक के लेखन में कर्नाटक के प्रगतिशील आंदोलनों की झलक साफ दिखती है। उन्होंने विभिन्न राज्यों की यात्रा की और बंदया साहित्य आंदोलन का हिस्सा बनीं, जिसने जाति और वर्ग उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई। उनका लेखन संघर्षरत लोगों के जीवन की सच्चाइयों को सामने लाता है।

सामाजिक बंधनों के खिलाफ रहीं मुखर

बानू मुश्ताक न केवल अपने लेखन में, बल्कि अपने निजी जीवन में भी सामाजिक बंधनों के खिलाफ खड़ी रहीं। उन्होंने अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह किया और महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए हमेशा मुखर रहीं। उनका कानूनी ज्ञान और सामाजिक चेतना उनके लेखन को एक तीखी नैतिक धार प्रदान करती है।

लेखिका के रूप में बानू मुश्ताक जितनी प्रभावशाली हैं, उतनी ही सक्रिय वह कानूनी क्षेत्र में भी रही हैं। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और धर्म, राजनीति और समाज द्वारा महिलाओं पर थोपे गए दबावों को उजागर किया। उनका मानना है कि महिलाएं समाज के हर क्षेत्र में आज्ञाकारिता की शिकार होती हैं और यह उनकी कहानियों में साफ झलकता है।

कहानियों से लेकर कविता तक का सफर

‘हार्ट लैंप’ के अलावा बानू मुश्ताक ने छह लघु कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और एक कविता संग्रह भी लिखा है। उन्हें कर्नाटक साहित्य अकादमी और दाना चिंतामणि अत्तिमाबे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। उनकी पहली पांच कहानियां ‘हसीना मट्टू इथारा कथेगलु’ (2013) में संकलित हैं और हाल ही में 2023 में उनका संग्रह ‘हेन्नू हदीना स्वयंवर’ प्रकाशित हुआ।

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