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अधिकारी आंख मूंदकर करते रहे साइन, मिलाप फर्जी बिल लगाकर परिजनों के खाते में डलवाता रहा योजनाओं का पैसा

हेमंत नागले, इंदौर।

इंदौर कलेक्टोरेट के जिला कार्यालय की लेखा शाखा में पदस्थ बाबू मिलाप चौहान, रणजीत कारोड और भृत्य अमित निम्बालकर द्वारा ट्रेजरी के बिलों में हेरफेर कर करोड़ों रुपए के घोटाले का पर्दाफाश हुआ है। इस मामले में इन तीनों के साथ ही कुल 29 लोगों के खिलाफ FIR दर्ज कराई गई है। वित्त विभाग की जांच में सामने आया है कि मिलाप और उसके साथी हितग्राहियों के खातों में जाने वाली राशि परिजनों और परिचितों के खाते में ट्रांसफर कर देते थे। peoplesupdate.com ने पता किया कि किसी हितग्राही के खाते में ट्रांसफर होने वाली राशि कैसे दूसरे के खातों में डाली गई तो चौंकाने वाले खुलासे हुए। पता चला कि मिलाप अधिकारियों के सामने फेल हुए ट्रांजेक्शन के बिल दोबारा पेश करता था और अधिकारी भरोसे में बिना देखे उसे अप्रूव कर देते थे। यह सिलसिला 2020 से चल रहा था। मिलाप चौहान 3 सितंबर 2015 से जिला कार्यालय की लेखा शाखा में पदस्थ है। शासकीय राशि निकालने का काम मिलाप सिंह चौहान करता था।

ऐसे होता है शासकीय योजनाओं का भुगतान

मान लीजिये, किसी क्षेत्र में 1,000 किसानों की फसल ओलावृष्टि से खराब हुई है। शासन ने इस पर मुआवजे की राशि तय कर दी। सर्वे के बाद संख्या के आधार पर वित्त विभाग संबंधित विभाग के नाम पर पैसा पास कर देता है। राज्य के कार्यालय से यह कलेक्टर कार्यालय के हेड्स पर पहुंचता है। इसके बाद यहां से बिल बनाकर ट्रेजरी भेजे जाते हैं। आखिर में ट्रेजरी से भेजे गए बिल बैंक के जरिये हितग्राही के खाते में पहुंचते हैं। बिल बनने से भुगतान के बीच डीडीओ (drawing and dispersible officer) और ट्रेजरी में कुल मिलाकर तीन स्तर पर चेक होते हैं। इसके बाद यह बैंक को भुगतान के लिए भेज दिए जाते हैं। अगले दिन यह भुगतान हो जाता है।

मिलाप चौहान क्या करता था

पांच साल पहले ट्रेजरी में साफ्टवेयर IFMIS आया था। इसके आने के बाद से कम ट्रांजेक्शंस वाले हेड्स को कलेक्टरों के खाते में मर्ज कर दिया गया था। यानी, इंदौर कलेक्टर के खाते में जहां पहले 15 से 18 हेड्स होते थे वो अब 120 हो गए हैं। मिलाप ने इसी का फायदा उठाया।

ऐसे करता था फर्जीवाड़ा : मान लिया कि मानदेय या फसल मुआवजा देने के आदेश मिले। इसमें कम से कम 1,000 लोग हितग्राही होते हैं। जब इतने लोगों का बिल लगता है तो कुछ में खाता नंबर या कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ियां हो जाती हैं। ऐसे में इन हितग्राहियों का ट्रांजेक्शन फेल हो जाता है। 100 लोगों के खात नंबरों में गड़बड़ी थी तो न इनके खाते में पैसा पहुंचा और न ही शासन के खाते में बचा। इसके बाद ट्रेजरी एक चालान बनाकर देता है, जिसमें फेल ट्रांजेक्शंस की संख्या बताई जाती है।

अटके खातों का दोबारा बिल बनाता था : बस यहीं से मिलाप और उसकी टीम का काम शुरू होता था। जिन खातों का पैसा अटका,  मिलाप उनके दोबारा बिल बनाता और इस बार वह अपने या परिचितों के खाता नंबर डालकर अधिकारियों के सामने पेश कर देता। अधिकारी भी विभागीय कर्मचारी के भरोसे में इन बिलों पर साइन कर आगे बढ़ा देते थे। चूंकि, सारा काम प्रक्रिया के तहत ही होता है तो किसी को शक नहीं होता और पैसे हितग्राही के बजाय दूसरों के खाते में ट्रांसफर हो जाते थे। मिलाप ने एक करोड़ से अधिक का पेमेंट अपनी पत्नी के नाम से अपने खाते में करवाया।

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सांख्यिकी विभाग में संभावना अधिक

विभागीय सूत्रों के मुताबिक सांख्यिकी विभाग में कोविड से मौत होने पर 50 हजार की सहायता राशि, सीएम सहायता राशि के 2 से 4 लाख रुपए और फसल मुआवजा जैसी राशियां स्वीकृत होती है। ऐसे में इस विभाग में फर्जीवाड़े की आशंका भी अधिक रहती है।

किसी स्तर पर नहीं होती जांच

इंदौर में हुए फर्जीवाड़े के मामले में हर जगह लापरवाही सामने आई। उदाहरण के तौर पर किसी हितग्राही को मुख्यमंत्री सहायता राशि के दो लाख रुपए स्वीकृत हुए। इसके लिए अस्पताल से एस्टीमेट आया और बाकयदा बिल बना। उसके बाद कलेक्टर से स्वीकृति हुई। कलेक्टोरेट से स्वीकृति की नोटशीट लगने के बाद एक बिल बनता है। यही बिल ट्रेजरी में लगता है। यह बिल स्वीकृत होने के बाद मिलाप की आईडी पर दिखता था। मिलाप उसे अपनी आईडी से आगे बढ़ाता। फिर वह डीडीओ की आईडी पर पहुंचता। यह आईडी भी मिलाप ही चलाता था। इस आईडी से आगे बढ़ने के बाद बिल एक लेवल पर चेक होता है कि नियमों के अनुसार है या नहीं। यहां से चेक होने के बाद यह टीओ की आईडी पर दिखता है। टीओ सारे पैरामीटर देखने के बाद इसे पास कर देते हैं। यहां से सीधे बैंक को पेमेंट की फाइल बनकर चली जाती है।  

यदि हिताग्रही आ गया तो…

जानकारों ने बताया कि जिस हितग्राही के नाम पर मिलाप और उसके साथियों ने फर्जीवाड़ा कर पैसे निकाले हैं, यदि वह आ गया तो मिलाप उसे वापस नहीं लौटाता था। वह हितग्राही के नाम पर किसी दूसरे हेड का पैसा निकवाकर उसे संतुष्ट कर देता था। हालांकि, अधिकतम 20 फीसदी हितग्राही ही इतने चक्कर लगाते हैं। चूंकि 120 हेड्स हैं, ऐसे में पता ही नहीं चलता था कि किस हेड का पैसा किसके खाते में चला गया।

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