
ऑनलाइन ठगी का शिकार होने वाले लोगों को राहत मिलना अब भी मुश्किल बना हुआ है। पिछले तीन साल में साइबर फ्रॉड से बचाई गई करीब 88 करोड़ रुपए की रकम में से सिर्फ 4.15 करोड़ रुपए ही पीड़ितों को वापस मिल पाए हैं। बाकी रकम बैंकों में फंसी हुई है और कोर्ट के आदेशों के इंतजार में ब्लॉक कर दी गई है।
अदालत से आदेश के बिना नहीं मिल पा रहा पैसा
डिजिटल पेमेंट्स पर संसद की एक समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, कुल साइबर ठगी की रकम में से औसतन 10% राशि ट्रेस कर ली जाती है। लेकिन उसे पीड़ितों तक पहुंचना आसान नहीं है। इसका कारण यह है कि राशि को वापस करने के लिए कोर्ट का आदेश जरूरी होता है। वहीं, कई बैंक फ्रीज की गई राशि को हटाने में भी टालमटोल करते हैं।
एक और बड़ी समस्या ये भी सामने आई है कि वैध और फर्जी ट्रांजेक्शन को अलग करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि साइबर अपराधी असली और नकली लेन-देन को मिलाकर फ्रॉड करते हैं।
तीन साल में 22 गुना बढ़ा साइबर फ्रॉड
संसदीय रिपोर्ट में बताया गया कि साल 2021 में करीब 547 करोड़ रुपए की ऑनलाइन ठगी हुई थी, जिसमें से बैंकों ने सिर्फ 3.64 करोड़ रुपए की राशि ब्लॉक की थी, लेकिन उसमें से एक भी पैसा पीड़ितों को वापस नहीं मिला। इसके बाद से साइबर ठगी के मामलों में लगातार इजाफा देखा गया है।
वर्चुअल अकाउंट से भी बढ़ रहे हैं फ्रॉड
गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने जानकारी दी कि बैंकों के वर्चुअल अकाउंट्स का इस्तेमाल अब फ्रॉड में तेजी से हो रहा है। करंट या एस्क्रो अकाउंट के जरिए कई वर्चुअल अकाउंट खोले जा रहे हैं, जिनकी ट्रैकिंग सरकारी एजेंसियों के लिए बेहद कठिन हो रही है।
इन खातों से लेनदेन की जानकारी किसी के पास नहीं होती और इनका उपयोग निवेश और कर्ज घोटालों में धड़ल्ले से हो रहा है।
क्या होता है वर्चुअल अकाउंट?
वर्चुअल अकाउंट एक तरह का नकली अकाउंट होता है, जो किसी असली खाते के आधार पर फिनटेक कंपनियों की मदद से बनाया जाता है। इससे लेनदेन का कोई स्पष्ट रिकॉर्ड नहीं बनता कि पैसा कहां से आया और कहां गया। इन पर निगरानी रखने की कोई ठोस व्यवस्था फिलहाल नहीं है।
बायोमीट्रिक क्लोनिंग से भी हो रही ठगी
रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (AEPS) के जरिए अब बायोमीट्रिक क्लोनिंग का इस्तेमाल कर ठगी की जा रही है। इसके लिए डमी या रबर की फिंगर का इस्तेमाल कर नकली फिंगरप्रिंट तैयार किए जाते हैं।
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