मैं ज्ञानियों की भी हूँ। पोथियों से दूर कबीरों की भी हूँ। मेरा मरकज़ महल भी है। झोपड़ी भी मेरा बसेरा है। मैं हर सीने में धड़क सकती हूँ…। मैं हिन्दी हूँ।
अपने वजूद और स्वाभिमान का उद्घोष करती एक भाषा अपनी यात्रा में जब दूर तक निकल जाती है तो सरहदों के दायरे सिमट जाते हैं। हिन्दी की हुंकार भी तो कुछ ऐसी ही है तभी तो उसका विश्व लगातार फैलता रहा है। भारत की मिट्टी का संस्कार पाकर इस भाषा ने अपनी आत्मीयता का आँचल कुछ इस तरह पसारा कि हर युग की नई आहटें इसमें पनाह पाती रहीं। जाति, वर्ग, वर्ण, विषय, भाषा और तकनीक की तमाम विविधताओं के बीच हिन्दी का आचरण ऐसा उदार और समावेशी रहा कि रचनात्मकता की नई संभावनाएँ हमेशा नए आकार लेती रहीं। अभिव्यक्ति का दायरा बढ़ा। सम्प्रेषण की नई दिशाएँ खुलीं। कौशल का विकास हुआ। ज्ञान और सूचना ने नए पंख फैलाए। यूँ हिन्दी की महिमा का गान साहित्य के परिसरों तक सीमित न रहकर नए इलाकों में भी गूँजता-गमकता रहा।
इस पृष्ठभूमि के साथ हिन्दी की मौजूदा दिशा और दशा पर जब निगाह रूकती है तो प्रयोग, नवाचार और उपलब्धियों का एक सतरंगी आसमान खुलता दिखाई देता है। ये वो फ़लक है जहाँ हिन्दी के नए हस्ताक्षर नुमाया होते हैं। मालूम होता है कि यह भाषा अब नई ज़रूरत और नई स्थापनाओं के बीच अपनी अहमियत की तस्दीक कर रही है। दिलचस्प यह कि नए क्षेत्रों में हिन्दी को लेकर जो नया महत्वपूर्ण और विपुल मात्रा में सृजन हो रहा है उसे पूरा मान, महत्व और प्रोत्साहन मिल रहा है। इसकी बड़ी मिसाल इधर मध्यप्रदेश ने पेश की है। संभवतः यह पहला राज्य है जहाँ की सरकार ने हिन्दी के विकास में अमूल्य योगदान के लिए संस्था और व्यक्तियों को सम्मानित करने विभिन्न श्रेणियों में पाँच महत्वपूर्ण पुरस्कारों की स्थापना की है। ग़ौरतलब है कि छः साल पहले मध्यप्रदेश के संस्कृति महकमे द्वारा हिन्दी दिवस (14 सितंबर) पर आयोजित एक समारोह में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इन सम्मानों की स्थापना की घोषणा की थी। सुखद संयोग कि तत्कालीन प्रमुख सचिव संस्कृति मनोज श्रीवास्तव जिनका हिन्दी के प्रति हार्दिक अनुराग रहा है, ने देर न करते हुए शासकीय स्तर पर इन सम्मानों की स्वीकृति की कार्यवाही को अंजाम दिया।
पहला सम्मान सूचना प्रौद्यागिकी में हिन्दी पर केन्द्रित है जिसके दायरे में हिन्दी सॉफ्टवेअर, सर्च इंजिन, वेब डिज़ाइनिंग, डिजि़टल भाषा, प्रयोगशाला, प्रोग्रामिंग, सोशल मीडिया, डिजि़टल ऑडियो, विजुअल एडीटिंग आदि कार्य आते हैं। दूसरा सम्मान विश्व प्रसिद्ध हिन्दी कथाकार और चिंतक निर्मल वर्मा की स्मृति में स्थापित है जो भारतीय अप्रवासी के विदेश में हिन्दी के विकास में अमूल्य योगदान के लिए दिया जाता है। तीसरी कोटि का सम्मान इस मायने में प्रेरक और उल्लेखनीय है कि यह हिन्दी को अगाध प्रेम करने वाले विदेशी फादर कामिल बुल्के के भाषायी पुरूषार्थ की याद को समर्पित है। इस सम्मान के दायरे में विदेशी मूल के लोगों का हिन्दी भाषा एवं उसकी बोलियों के विकास में उत्कृष्ट योगदान है। एक अन्य सम्मान हिन्दी में वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन एवं पाढ्य पुस्तकों के निर्माण को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से स्थापित है जो मूर्धन्य वैज्ञानिक लेखक गुणाकार मुले के नाम से रचा गया है। पाँचवी श्रेणी में हिन्दी सेवा सम्मान है। इसके पीछे दृष्टि अहिन्दी भाषी उन लेखकों के सृजन को चिन्हित करने की है जिन्होंने अपने कृती-व्यक्तित्व से हिन्दी के संसार को समृद्ध किया है। इस प्रवाह में यह जानते चलें कि इन सभी सम्मानों के अंतर्गत एक लाख रूपए की आयकर मुक्त राशि, प्रशस्ति पट्टिका, शॉल और श्रीफल प्रदान किया जाता है। सम्मानों का चयन मध्यप्रदेश शासन द्वारा मनोनीत विशेषज्ञों की निर्णायक समिति स्वविवेक के आधार पर करती है।
विगत चार वर्षों के सम्मान प्राप्त विजेताओं को लक्ष्य करें तो इनमें गूगल और माईक्रोसॉफ्ट कार्पोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के अलावा गुड़गाँव के बालेन्द्र शर्मा दाधीच, आगरा के हरिमोहन, ईटानगर के प्रो. ओकेन लेगो, विशाखापट्टनम् के प्रो. एस. शेषारत्नम्, सागर के छबिल कुमार मेहेर तथा भोपाल पुरूषोत्तम चक्रवर्ती, कर्पूरमल जैन और अनुराग सीठा शामिल हैं। ये सम्मान इस बात की ताईद करते हैं कि हिन्दी में नई आवाज़ों को जज़्ब करने की ताक़त रही है। वह ज्ञान और सूचनाओं का बेहतर ज़रिया है। यह भी कि वह पाषाण की प्रतिमा न होकर अष्टधातु की मूरत में ढलने का माद्दा रखती है। धारणा साफ़ होती है कि हिन्दी की संपदा को महज़ साहित्य के आसपास ठहरकर आँकना उसका सही मूल्यांकन नहीं। उसके समग्र विकास को समेटने के लिए उसकी आधुनिक आभा से आँख मिलाने की भी दरकार है जो विज्ञान, तकनीक और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे नए पायदानों पर खड़ी होकर अपनी कीर्ति का परचम फहरा रही है।
जानकर भला लगता है कि हिन्दी को लेकर तमाम नई तकनीक गंभीर और उत्साही है कम्प्यूटर, मोबाईल सहित अन्य नए उपकरणों में संचार का विकल्प हिन्दी लगभग अनिवार्य है। तकनीकी तौर पर इनका संचालन भी बहुत आसान हो गया है। हिन्दी के इस तकनीकी प्रशिक्षण के लिए अनेक मंच और सूत्र सक्रिय हैं। अनुवाद की एक ज़रूरी और सहायक भाषा के बतौर हिन्दी के प्रति रूझान बढ़ा है। विदेशों के हिन्दी अध्ययन केन्द्रों में नए शोधार्थी अनुवाद के सहारे भारत के महान साहित्य को और भारतवंशी, विश्व की अनुपम कृतियों को अपने लिए सहज पा रहे हैं।
याद आता है भोपाल में पाँच बरस पूर्व हुआ दसवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन। मध्यप्रदेश उसका मेजबान था। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने उसे संयोजित किया था। राजनीति और संस्कृति की प्रखर-मुखर प्रवक्ता विदुषी सुषमा स्वराज ने इस अंतरराष्ट्रीय समागम की कमान अपने हाथों में सम्हाल रखी थी। इस विश्वमंच का उद्घोषक होने के नाते मैं (इस आलेख का रचनाकार) पूरे विहंगम का निकट साक्षी रहा। संचार माध्यमों से संवाद के दौरान सुषमा स्वराज ने यह धारणा साफ़ कर दी कि यह हिन्दी के नाम पर सिर्फ़ साहित्यकारों का कुंभ नहीं है। यह गतिविधि हिन्दी के नए संसार और उसके तकनीकी विस्तार को देखने-समझने का ऐतिहासिक अवसर है। भोपाल के लाल परेड मैदान पर बने विशाल पांडाल के भीतर बने अलग-अलग डोम हिन्दी की गति और उसके नए गंतव्यों की गवाही दे रहे थे।
दरअसल इस वक़्त सारी चुनौती नई तकनीक की है जिसके सहारे नई राहों पर चलना अपरिहार्य है। संवादों के नए संसार में भाषा को भला हाशिये पर कैसे छोड़ा जा सकता है। हिन्दी हमजोली के लिए सदा तैयार है।